________________
१२
. बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ के प्रसंगमें भी उन्होंने रात्रिभोजन नहीं ही किया। प्रातः काल में नवकारसी एवं शामको चौविहार का पच्चक्खाण करने लगे । प्रतिदिन नवकार महामंत्रकी एक पक्की माला का जप करने का प्रारंभ किया। जैन धर्म के प्रति अटूट श्रदधा रखने लगे ।
इस चातुर्मास में उपधान तपकी क्रिया देखकर उनमें क्रियारुचि उत्पन्न हुई और उन्होंने हररोज मौनपूर्वक एक सामायिक करने का प्रारंभ किया। प्रतिवर्ष अपने उपकारी गुरुदेवश्री का चातुर्मास जहाँ भी होता वहाँ जाकर पर्युषणमें उनकी पावन निश्रामें एकांतरित ४ उपवास एवं ४ एकाशन पूर्वक ६४ प्रहरी पौषध करने लगे । यह क्रम पिछले १४ सालसे अखंड रूपसे चालु ही है। . ट्रेन्ट गाँवमें एक भी जैन घर न होने पर भी जैन धर्म का पालन करते हुए लालुभा का, प्रारंभमें गांव के लोगोंने बहुत विरोध किया । तब लोक विरोध को शांत करने के लिए व्यवहार-दक्षता का उपयोग करते हुए लालुभा अपने गुरुदेवश्री के मार्गदर्शन के अनुसार शिवमंदिरमें जाकर भी -
"भवबीजांकुरजनना, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥"
(भावार्थ : संसार रूप बीजमें से अंकुर को उत्पन्न करनेवाले राग द्वेषादि दोष जिनके क्षय हो गये हैं ऐसे जो भी देव हों, चाहे वे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, शंकर हों या जिनेश्वर भगवंत हों, उनको मेरा नस्कार हो।) यह श्लोक बोलकर, बाह्य दृष्टिसे शिवलिंग को नमस्कार करते हुए दिखाई देनेवाले लालुभा भावसे तो श्री जिनेश्वर भगवंत को ही नमस्कार करते थे।
अनन्य गुरुसमर्पण भावको धारण करनेवाले लालुभाने सं. २०४५ में अपने गुरुदेवश्री के साथ वर्षीतप का प्रारंभ किया एवं उसका पारणा भी गुरुदेवश्री के साथ हस्तिनापुर तीर्थमें किया ।
सं. २०४८ में वर्धमान आयंबिल तपका प्रारंभ किया । कषाय जय तप एवं धर्मचक्रतप को पूर्ण करने के बाद वीरमगाँव से प्रभुजी को ट्रेन्ट गाँवमें विराजमान करके बड़ी धूमधाम से स्नात्रपूजा पढाकर