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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २
"समयसार" नामके आध्यात्मिक ग्रंथ के अनुसार बनाये गये एक श्लोक का नानजीभाई की विज्ञप्तिसे बार बार मनन करते हुए देवजीभाई को विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूति हुई थी और उनकी अंतरात्मा आनंदसे नाच उठी थी । इसीलिए तो उनके देहविलय के बाद उनके हरेक रिश्तेदारों के घरमें रही हुई उनकी प्रतिकृति के नीचे वह श्लोक अंकित हुआ दृष्टि गोचर होता है । यह रहा वह श्लोक -
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'छिन्न भिन्न सहु थाव के, भले सर्व लुंटाव ।
विणसो के विखराओ पण, पर द्रव्य मारुं नवि थाव ॥"
जीवन की परीक्षा सचमुच मृत्यु के समयमें होती है । जो वास्तविक रूपमें आध्यात्मिकता को समर्पित होते हैं उनका देहविलय भी सहज रूपसे समाधि पूर्वक होता है । मृत्यु उनके लिए जीर्ण वस्त्र बदलकर नूतन वस्त्रों को धारण करने की तरह आनंद का हेतु बनता है । उनकी मृत्यु महोत्सव रूप होती है । अमर जीवन का प्रवेश द्वार होती है। ऐसे साधक ही महान योगीराज श्री आनंदघनजी की तरह गा सकते हैं कि
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" अब हम अमर भये न मरेंगे,
या कारण मिथ्यात्व दीयो तज क्यूं कर देह धरेंगे ?.. अब हम ... " देवजीभाई के देहविलय की घटना भी इस विधान का साक्षात्कार करानेवाली हुई । वि. सं. २०५१ में वैशाख कृष्णा द्वादशी के दिन प्रातः १०.३० के आसपास समयमें उनका देहावसान हुआ, उसी दिन भी वे बिल्कुल स्वस्थ ही थे प्रातः सूर्योदय से २ घंटे पूर्व उठकर अपने आध्यात्मिक नित्यक्रमसे निबटने के बाद, अपने घरमें पधारे हुए साध्वीजी भगवंतोंको अपने हाथों से भावपूर्वक गोचरी बहोराकर सुपात्रदान का लाभ लिया तब किसी को कल्पना भी न थी कि अब केवल १ प्रहर के भीतर ही ये योगीपुरुष अपनी जीवनलीला को स्वेच्छा से सिमट लेंगे । मनवचन - काया के तीनों योग एकदम शांत हों और आत्मा अपने स्वरूपमें लीन हो ऐसी अवस्थामें देवजीभाई कईबार घंटों तक स्थिर रहते थे, इसलिए नानजीभाई ने उनको २-४ बार कह दिया था कि "सेठ ! जब बिदाई का अवसर आये तब हमको खबर जरूर देना,
हमको अंधेरेमें
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