________________
बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २
१६३ लिए दोनों हररोज एक साथ जाते थे तब देवजीभाई स्वयं ज्येष्ठ होते हुए भी लघुबंधु नानजीभाई को ही आगे बैठाकर स्वयं थोड़ासा पीछे हटकर बैठते थे । प्रायः उनके नेत्र निमीलित अवस्थामें ही रहते थे । प्रासंगिक बातचीत प्रायः नानजीभाई ही करते थे । वे अपने बड़े भाईके उत्तर साधककी तरह उनकी छाया बनकर हमेशा साथ ही रहते थे और हर तरहसे देखभाल करते थे । अपने बड़े भाई को “सेठ" शब्दसे ही संबोधन
करते थे । ... कोई भी कार्य होता तब वे अपने बड़े भाईकी इच्छा को · ही आज्ञा तुल्य समझकर उसका पालन करते थे।
ऐसा अपूर्व भ्रातृप्रेम होते हुए भी उसकी नींवमें आध्यामिकता थी, इसलिए आसक्ति युक्त लौकिक स्नेह रागसे कोई भिन्न ही प्रकार का अलौकिक शुद्ध आत्मिक प्रेम दोनों के बीच था । इसीलिए तो जब देवजीभाई का देहविलय दि. २५-५-१९९५ के दिन सहज समाधिमय अवस्थामें हुआ तब नानजीभाई के नेत्रोंमें वियोग की वेदना के अश्रुबिंदु या मनमें जरा भी आर्तध्यान नहीं था किन्तु ज्येष्ठ बंधु की समाधि अवस्था का गौरव था । वे आज भी कहते हैं कि - "सेठ कहीं भी नहीं गये हैं । वे मेरे साथ एकरूप होकर अभिन्न भावसे विद्यमान ही हैं ! पहले देह भिन्न थे और आत्मा मानों एक रूप थी, अब एक ही देह द्वारा दो चेतनाएँ अभिन्न रूपसे अपना कर्तव्य निभा रही हैं । यदि सेठ चले गये हों तो मेरा यहाँ रहना असंभव हो जाता !!!" उनके इन गूढ शब्दों का, हार्द कौन समझ सकेंगे ? - अपनी धर्मपत्नी सुश्राविका श्री रतनबाई के देहविलय के बाद देवजीभाई की वृत्ति सविशेष रूपसे अंतर्मुखी होनेसे उनको अनाहत नाद और आज्ञाचक्र (दोनों भौहों का मध्य भाग) में ज्योतिका दर्शन - दोनों एक साथ प्रारंभ हो गये थे । परिणामतः मन-वचन-काया के तीनों योग सहजरूपसे हमेशा आत्माभिमुख ही हो गये थे। घंटों तक वे समाधि अवस्थामें आत्म स्वरूपमें लीन रहते थे । तब बहिर्मुख वृत्तिवाले सामान्य लोग विविध प्रकारके तर्क-वितर्क किया करते थे, मगर नानजीभाई उनकी उच्च आध्यात्मिक अवस्था को अच्छी तरह समझ सकते थे । इसलिए उत्तर साधक के रूपमें उनकी हर तरहसे देखभाल भक्ति भावसे गौरव पूर्वक करते थे ।