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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ व्यवस्था का दायित्व कई वर्षों तक उन्होंने भक्तिभावसे अच्छी तरह निभाया है, परिणामतः हजारों साधु-साध्वीजी भगवंतोंके हार्दिक शुभाशीर्वाद उन्होंने संप्राप्त किये हैं । उसमें भी अचलगच्छाधिपति प. पू. आ. भ. श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म. सा. की आज्ञावर्तिनी महा तपस्विनी, तत्त्वज्ञा प. पू. सा. श्री जगतश्रीजी म. सा. एवं उनकी सुशिष्या योगनिष्ठा प.पू. विदुषी सा. श्री गुणोदयाश्रीजी म. सा. सपरिवारके सत्संगने उनकी आध्यात्मिक विकास यात्रामें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
बड़े भाई देवजीभाई तो मानो जन्म से ही योगी जैसे थे । बाल्य वय से ही वे अत्यंत शांत प्रकृतिवाले और अंतर्मुख वृत्तिवाले थे । व्यवसाय के निमित्त से दफतर में बैठते थे तब भी उनकी साहजिक स्थितप्रज्ञता देखनेवालों के चित्तमें अहोभाव जगाती थी । कई वर्षों तक (आजीवन) गांधीधाम जैन संघ के सर्वानुमति से वरण किये गये प्रमुख के रूपमें उन्होंने अमूल्य सेवाएं प्रदान की हैं ।
क्रोध करनेका या बार बार मांगने के लिए आते हुए किसी याचक को भी 'नहीं' कहना, तो मानो उनको आता ही नहीं था । दोनों भाइयों के नाम के प्रथम अक्षरों से “देना" शब्द बनता है; उसीको सार्थक बनाने के लिए अर्थात् दूसरों को देने के लिए ही मानो उनका जन्म हुआ हो. ऐसा उनका निःस्वार्थ परोपकार प्रधान जीवन है।
किसी भी व्यक्ति की अपेक्षा के अनुसार छोटी या बड़ी रकम सहाय के रूपमें देने के बाद बही खाते में या अपने दिमाग में भी उसकी स्मृति उन्होंने कभी रखी नहीं है । इसीलिए तो देवजीभाई के स्वर्गवास (दि. २५-५-९५) के बाद कई लोग छोटी-बड़ी धनराशि वापिस लौटने के लिये आये तब नानजीभाई ने उन्हें प्रेमपूर्वक प्रत्युत्तर दिया कि - 'सेठने (बड़े भाईने) मुझे इस राशि के विषय में कुछ भी कहा नहीं है, इसलिए उनकी आज्ञा के बिना मैं इसका स्वीकार नहीं कर सकता । इसलिए आप ही इस राशिका सदुपयोग करें।' ... दोनों भाइओं के बीच लोकोत्तर कोटि का भातृस्नेह अनुमोदनीय
और अनुकरणीय था। उपाश्रयमें साधु-साध्वीजी भगवंतों के दर्शन-वंदन के