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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ बनकर और गौणतया श्रमणोपासक बनकर किया जाता है । किन्तु श्रावकावस्था की साधना करने वाला श्रावक शास्त्रविहित भावश्रावक होना जरूरी है, तभी ही वह परमात्मा के शासन का धर्मोपासक गिना जाता है, सिर्फ अज्ञानमूलक बाह्य क्रिया कलापों से नहीं । 'छ: री' पालित संघ की मर्यादा में एक "री" सम्यकत्वधारी की है । अर्थात् जैन श्रावक कमसे कम चतुर्थ गुणस्थानकवर्ती तो होना ही चाहिये, उसके बाद ही १२ अणुव्रतधारी श्रावक बनकर पाँचवें गुणस्थानक को स्पर्श कर सकता है।
इस पुस्तक में प्रस्तुत अनेक उदाहरण पूर्वकालीन श्रावक श्राविकाओं की याद दिलाकर आज भी परमात्मा का शासन कैसा ज्वलंत है उसकी प्रतीति कराते हैं । पू. गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म.सा. के साथ इस पुस्तक के गुजराती प्रकाशन के पूर्व कोई परिचय भी नहीं था, किन्तु सिर्फ गुणानुराग से स्वयं की जिज्ञासा हेतु परिचय किया, जिसके फल स्वरूप गुजराती प्रकाशन में चारों भाग की प्रस्तावना लिखने का लाभ दिया, और यह प्रस्तावना भी उन्हींके खास आग्रह और प्रेरणा से सर्व जनहिताय लिखने का मौका मिला है । आज संयमावस्था में रहते हुए भी कुछ उत्तम आराधकात्मा श्रावक-श्राविकाओं का परिचय है, जिन्हें देखकर
और जिनकी आराधना जानकर स्वयं का संयमोल्लास बढ़ जाता है । अपने अपने स्थान पर की हुई सच्ची आराधना ही जीव की प्रगति का लक्षण है । वैसा सच्चा श्रावक परमात्मा के शासन की शोभा है, कोई तो अल्पावतारी बनकर मोक्ष मंज़िल को भी स्पर्श ले तो आश्चर्य क्या ?
राजा कुमारपाल आजीवन श्रावकावस्था में ही रहे, किन्तु धर्म प्राप्ति के बाद आत्मशुद्धि के हेतु जरा भी वीर्य छिपाया नहीं है । मन के पाप को उपवास से, वचन दोष को आयंबिल से और काया की अप्रशस्तता का प्रायश्चित्त करने के लिए एकाशन का अभिग्रह किया । अनेक प्रकार की शासन प्रभावना करके आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर के प्रथम गणधर बनने का सौभाग्य भी उपार्जित कर लिया है न ?
वैसे ही बीस-स्थानक तप की आराधना करके जैसे नंदनऋषि ने