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भावुकात्माओं की पुनः पुनः भावपूर्ण विज्ञप्ति ही इस हिन्दी संस्करणमें निमित्त रूप बनी है।
चूंकि मेरी मातृभाषा गुजराती है, इस हिन्दी अनुवादमें कहीं कोई गुजराती शब्द प्रयोग हो गये हों, तो प्रिय पाठकों से नम्र निवेदन है कि इसे सुधारकर पढें और क्षतियों के प्रति मेरा ध्यान खींचें ताकि भविष्यमें उनमें सुधार हो सके ।
प्रस्तुत किताब का प्रकाशन शीघ्र हो सके इसलिए तृतीय विभाग का अनुवाद करने की जिम्मेदारी बाड़मेर निवासी युवा श्रावक श्री मदनलाल बोहरा (सह संपादक, धर्मघोष मासिक) को सौंपी, जो उन्होंने शीघ्र पूर्ण की है । एतदर्थ वे हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं।
तीन विभागों में विभाजित इस किताब के प्रथम विभाग में जन्म से अजैन होते हुए भी आचरण से विशिष्ट जैन हों ऐसे विविधकुलोत्पन्न आराधकों के ८६ दृष्टांत दिये गये हैं । इन दृष्टांतोंको पढते हुए जैनकुलोत्पन्न आत्माओं को सोचना चाहिए कि जैनेतर कलमें उत्पन्न आत्माएँ भी यदि सत्संग से जैन धर्म का ऐसा विशिष्ट आचरण करती हों, तो जैनकुलोत्पन्न हमें तो प्रमाद
और उपेक्षावृत्ति को छोड़कर उनसे भी विशिष्ट रूपसे जैनधर्म के मर्म को समझकर धर्माचरण द्वारा जीवन को सफल बनाना चाहिए।
दूसरे विभाग में जैन धर्मकी विशिष्ट कोटिकी आचरणा करनेवाले वर्तमानकालीन श्रावक-श्राविका रत्नों के अनुमोदनीय दृष्टांत दिये गये हैं, उनमें से प्रेरणा पाकर अन्य श्रावकश्राविकाओं को भी अपने जीवनमें ऐसी आराधनाएँ और सद्गुणों का विकास करने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए । इस विभाग के कुछ दृष्टांत तो संसार त्यागी साधु-साध्वीजी भगवंतों के लिए भी सचमुच प्रेरणादायक और अत्यंत अनुमोदनीय हैं । अगर गृहस्थाश्रममें रहे हुए श्रावक-श्राविकाएँ भी इतनी विशिष्ट कोटिकी आराधनाएँ करते हैं, तो संसार त्यागी ऐसे हमें अपने जीवन में
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