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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ बनानेवाले व्यक्ति आज तकती एवं प्रसिद्धि की अपेक्षा रखे बिना गुप्त रूपसे हर महिने हजारों रुपयों का अपने गाँवमें एवं अन्य गाँवोंमें भी साधर्मिक भक्ति इत्यादि सत्कार्योंमें सद्व्यय करते हैं । करीब सात महिनों तक अपने गाँवकी भोजनशालामें प्रति महिने ३१०० रूपये देते थे, बादमें गांभू , शंखेश्वर इत्यादि तीर्थों की भोजनशालामें देते हैं !...
पिछले २ सालसे प्रतिदिन शामको श्रीपंचासरा पार्श्वनाथ भगवंत की आरती एवं मंगल दीपकका लाभ लेने के लिए हररोज ७ मणसे बोली का प्रारंभ करवाते हैं एवं विशिष्ट दिनों में तो ५०० मणसे भी अधिक बोली बोलकर वे प्रभुभक्ति का लाभ लेते हैं !...
जैनेतर कुल में जन्म होने की वजह से ३९ साल की उम्र तक सिद्धाचलजी महातीर्थ की यात्रा के महालाभ से वंचित इस महानुभावने समझ मिलते ही 'जब तक चौविहार छठ्ठ तप करके सिद्धाचलजी की सात यात्राएँ न कर सकुं तब तक दूधका त्याग', ऐसा संकल्प किया। (चायका त्याग तो पहले से है ही ।) और आखिर अगले ही वर्षमें उन्होंने चौविहार छठ्ठ (बेला) तपके साथ गिरिराज की सात यात्राएँ अत्यंत हर्षोल्लास के साथ की । यात्राएँ करते हुए उनको इतना आनंद हुआ कि अब प्रतिवर्ष एक बार इस तरह चौविहार छछ तप के साथ सात यात्राएँ करने की भावना हुई है।
दैवसिक एवं राई प्रतिक्रमण के सूत्र कंठस्थ कर लिये हैं और जब तक पाँच प्रतिक्रमण के सूत्र कंठस्थ न कर सकें तब तक अमुक वस्तु के त्याग का संकल्प भी किया है ।
केवल एक ही चातुर्मास के कुछ दिनों तक हुए जैन साध्वीजी के सत्संग के प्रभावसे अपने जीवन को उत्तरोत्तर अधिक-अधिकतर धर्ममय त्यागमय संयममय बनानेवाले ये भाग्यशाली पुण्यात्मा कौन होंगे । नहीं, ये जन्म से जैन नहीं हैं, मगर सत्संग द्वारा आचरण से विशिष्ट जैन बने हुए इन महानुभाव का नाम है संजयभाई डाह्यालाल सोनी (उम्र वर्ष ४०)। वे गुजरातमें पाटण शहर के निवासी हैं ।
सं. २०५१ में पाटणमें अध्यात्मयोगी प.पू. आ. भ. श्री विजय