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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १
६७ समर्पितता, सहवर्ती साधकों के साथ मैत्री प्रमोदभाव पूर्वक रहनेकी कुशलता इत्यादि सद्गुण उनकी विकासयात्रामें परम आलंबन रूप बने हैं।
उनकी प्रत्येक चर्यामें जागृति का दर्शन होता है । कभी-गुरुदेवश्री मिष्टान्न ग्रहण करने के लिए प्रेरणा करते हैं, तब वे विनयपूर्वक कहते हैं 'गुरुदेव मुझमें स्थूलिभद स्वामी जैसी-निर्लेपता नहीं है इसलिए'...!
दुर्घटना के कारण पैमें कष्ट होते हुए भी दीक्षा के बाद प्रथम वर्षमें ही औरंगाबादसे समेतशिखरजी महातीर्थके छः'री' पालक पदयात्रा संघमें दो महिनेमें १८०० कि.मी. का उग्र विहार भी प्रसन्नता के साथ किया। एक बार विहारमें बुखार आने पर गुरु महाराजने डोलीका उपयोग करनेके लिए प्रेरणा दी तब उनके नेत्रोंमें से उष्ण अश्रुधारा बहने लगी । आखिर डोलीका उपयोग नहीं ही किया । यह है चारित्रकी चुस्तता का .त ।
आयंबिल तप उनके लिए बहुत कठिन होते हुए भी भगीरथ पुरुषार्थसे वर्धमान तपकी नींव डालकर १० ओलियोंकी आराधना प्रसन्नता के साथ पूर्ण की है।
प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म.सा., प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. और प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय मुक्तिचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की दिव्य कृपा और प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय प्रभाकरसूरीश्वरजी म.सा. के प्रत्यक्ष आशीर्वादों से मुनि प्रभुरक्षित विजय अपनी आराधनामें दिन-प्रतिदिन अनुमोदनीय प्रगति कर रहे हैं । .. धन्य शासन... धन्य साधक.... धन्य साधना..... हार्दिक अनुमोदना...
११ सालका बाल्यवयमें एकाशन के साथ लाख नवकार जपता हुआ लक्षेशकुमार भूपेन्द्रभाई भावसार
- भरूचके समड़ीविहार तीर्थोद्धारके मार्गदर्शक, लब्धिविक्रम गुरु कृपाप्राप्त प.पू.आ.भ. श्री विजय राजयशसूरीश्वरजी म.सा. आदिका चातुर्मास वि.सं. २०४३ में भरुचमें हुआ था । तब पूज्यश्री के सत्संगसे भावसार