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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ श्री पूर्णचन्द्रसूरिजी म.सा. के पास गये । वहाँ अनेकविध आराधनाओं के साथ अहमदाबादसे सिद्धगिरिजी महातीर्थ के छ:'री' पालक पदयात्रा संघमें शामिल होकर तीर्थयात्रा की । बादमें सम्मेतशिखरजी वे भीलडीयाजी आदि तीर्थों की यात्रासे अपनी आत्माको पावन बनाया । इस तरह जिनभक्ति उनके जीवनके उत्कर्षमें उपकारक बनी।
आखिर उन्होंने संयम के लिए अनुमतिकी भावनासे अठ्ठम तप किया। उस तपमें कठिनताका अनुभव हुआ, मगर मनकी मस्ती अपूर्व थी। बादमें वे सीधे प.पू. आचार्य भगवंतश्री के चरण-कमलमें उपस्थित हुए
और संयम स्वीकार करने के लिए आशीर्वादको अभ्यर्थना की । दिलीपभाइ के माता-पिता मालेगांव आये । प.पू.आ.भ.विजय प्रभाकरसूरीश्वरजी म.सा.के मिताक्षरी उपदेशसे अब माता-पिताने दीक्षाके लिए अनुमति प्रदान की । दिलीपभाई की खुशीका ठिकाना न रहा ।
___ वि.सं. २०५१ के ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशीके शुभ दिनमें येवला श्रीसंघ एवं परिवारजनोंके द्वारा हर्षोल्लासपूर्वक भव्यदीक्षा महोत्सव संपन्न हुआ । दिलीपभाई संयम श्रृंगार सजाकर अणगार बने । गुरु महाराजने उनको मुमुक्षु अवस्थामें प्रेमसे 'प्रेमकुमार' नाम दिया था उसे सिद्धांत महोदधि प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. के संयम उपवनमें प्रवेश करने की अनुमति (परमीशन) मिली । प्रेमकुमार अब मुनि प्रभुरक्षित विजय बन गये। जो प्रभुद्वास रक्षित हो उसका बाल भी बांका कौन कर सकता है भला। माता निर्मलाबहन का लाल अब अष्टप्रवचन माताका लाडला बन गया !!!
___आत्मतेज (प्रभा) का विस्तार करनेवाले प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय प्रभाकरसूरीश्वरजी म.सा. का सुवर्णमें सुगंध की तरह सुयोग मुनि प्रभुरक्षित विजयको मिला, जो उनके महान् पुष्णोदय को सूचित करता है। गुरुदेवकी तारक निश्रामें वे मुनि जीवनकी विशिष्ट दिनचर्या में मन-वचनकाया की एकाग्रता से ऐसे जुड़ गये कि दर्शन करनेवालों का मन और मस्तक अहोभावसे, झुके बिना रह नहीं सकता । कुशल व्यापारी की तरह वे धर्मरूपी धनका संचय करने के लिए अप्रमत्त भावसे प्रयत्नशील बने । संयमनिष्ठा, सेवा, स्वाध्याय रसिकता, क्रियाचुस्तता, गुरुआज्ञापालन तत्परता,