________________ 482 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 अभ्यास किया था। अंग्रेजी भाषा की 38 पुस्तिका का वाचन किया था। कैसी अद्भुत होगी इनकी ज्ञान पिपासा, तीक्ष्ण मेधा और अप्रमत्तता !!... ऐसा बेजोड़ ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने के बावजूद निस्पृहता और अंतर्मुखता ऐसी अनुपम थी कि उन्होंने संकल्प लिया था कि आजीवन शिष्य नहीं बनाउँगा एवं व्याख्यान नहीं दूंगा !!! दो मुमुक्षुओं ने इनके पास ही दीक्षा लेने का अपना निर्णय घोषित किया किन्तु वे अपने संकल्प से विचलित नहीं हुए। आखिर मुमुक्षुओं को प्रेम से समझाकर दूसरों के शिष्य बनवाये। ___ उन्होंनें मृत्यु पर्यन्त समस्त फल, मिठाई, मेवा आदि अनेक वस्तुओं का त्याग किया था। गृहस्थावस्था में स्नातक होते समय हमेशा प्रेस टाईट, अप टु डेट कपड़े पहनने के शौकिन होने के बावजूद मुनि श्री दीक्षा के बाद ओघनियुक्ति आदि शास्त्रों के वचन अनुसार वर्ष में केवल एक बार ही वस्त्र प्रक्षालन करते थे। धीरे - धीरे इनके ग्रुपमें इनके गुरुदेव सहित लगभग सभी मुनिवरों और अनेक साध्वीजी भगवंतों भी इनका अनुकरण कर आज भी वर्षमें केवल एक या दो बार ही वस्त्र प्रक्षालन करते हैं !.. इन्होंने कई मुनिवरों को उदारतापूर्वक ज्ञानदान किया / इनके ही द्वारा शिक्षित इसके एक गुरुभाई आज युवाओं के दिल की धड़कन बन चुके हैं। जिन्हें इस वर्ष (सं. 2055) भीलडियाजी तीर्थ पर पंन्यास पद से विभूषित किया गया। इन्होंने कई संघों के ज्ञान -भंडार व्यवस्थित करवाये / अजोड़ विद्वत्ता होने के बाबजूद भी इनका गुरु समर्पणभाव और गुरूदेव तथा ज्ञान-वृद्ध आदि मुनिवरों की सेवा करने की वृत्ति भी अत्यंत अनुमोदनीय कक्षा की थी। जिनशासन के अनमोल रत्न समान यह मुनिवर केवल 29 वर्ष की छोटी उम्र में दि 2-5-85 के दिन विहार के दौरान पीछे से आ रही एक ट्रक का शिकार बनकर कालधर्म को प्राप्त हुए !.. कर्म की गति कैसी विचित्र है ! इनके जीवन का वर्णन करती एक पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिसका नाम "बरस रही अखियो" है / यह पुस्तक प्रत्येक साधु -साध्वीजी के लिए