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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग
पूर्व में हुई बात की याद दिलायी मगर इस वक्त गोर महाराज अपने प्लेटफोर्म पर थे । वे अब वरराजा की बात मानने के लिए तैयार नहीं थे ।
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गोर महाराज की तेज आवाज सुनकर वर-कन्या के पिता दौड़ आये । 'आप आपके स्थान पर पधारें, अभी परिस्थिति शांत हो जायगीं, आप जरा भी चिन्ता नहीं करे इत्यादि शब्दों द्वारा दोनों को समझाकर वरराजाने बदाय किये । बादमें गोर महाराज को शांति से समझाने पर जब वे वरराजा की बात का स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए तब वरराजाने उनको एक ओर हट जाने की सूचना दी । गोर महाराज के दूर होने पर उनके स्थान पर वरराजा के जैनधर्मी मित्र बैठ गये । स्नात्रपूजा, प्रभुभक्ति, भक्तामर स्तोत्र पाठ इत्यादि करनेवाले उन्होंने सुंदर आलाप पूर्वक संस्कृत स्तुतियाँ बोलने का प्रारंभ कर दिया ।
अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहिताः सिद्धाश्च सिद्धि स्थिताः आचार्या जिनशासनोंन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः.... तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ
तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय ... '
इत्यादि श्लोकों के जयघोष से मंगलमय माहौल बन गया ।
यह तो शादी की ही विधि चल रही है ऐसा समझकर गोर महाराज तो डर गये । रूपये और इज्जत दोनों जाने के भय से तो वे ढीले हो गये। उन्होंने दो तीन बार वरराजा को विज्ञप्ति करके शादी की विधि कराने की तैयारी दिखलायी । वरराजा ने उसे मान्य की। शादी की विधि वरराजा की इच्छानुसार ही पूर्ण हुई ।
वरराजा ने और उनके मित्रोंने बाद में महाराष्ट्र में कई जगह पर 'सीता के मन एक राम, जैन के मन एक अरिहंत' वाली बात सिद्ध करके बतायी ।
(२)
शादी के बाद वरराजा घर लौटे । घर में माताजीने कुलदेवी को नैवेद्य चढाने की बात कही तब बेटा कहने लगा, 'माँ ! तुझे जो कुचाँ