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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २
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और ग्रंथों में उनकी सिद्धहस्त लेखनी से आलेखित लेख प्रकाशित होते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में उनकी प्रस्तावनाओं के पठन द्वारा भी उनकी ज्ञान प्रतिभा और विशिष्ट लेखन शैलीका परिचय वाचकवृंदको हो सकेगा ।
उनके परम उपकारी गुरुदेव प. पू. पंन्यास प्रवर श्री जयसोमविजयजी म.सा. सुविशुद्ध चारित्राचार के पालक हैं । प.पू. आ. भ. श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. के अंतिम समय में उन्होंने विशिष्ट सेवा की थी । वर्धमान आयंबिल तपकी १०८ ओलियाँ, ३६, ३८, ४०, ४१, ४५, ५५, ६८ उपवास, दो वर्षीतप इत्यादि विशिष्ट तपश्चर्या के कारण प.पू. आचार्य भगवंत श्री विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा. ने उनको "तपस्वी रत्न" के अलंकरण से अलंकृत किया था । ऐसे उत्कृष्ट तपस्वी, आराधक गुरुदेव श्री के तप के संस्कार मुनिश्री जयदर्शनविजयजी में अभी से दृष्टिगोचर हो रहे हैं ।
सा. श्री भव्यगुणाश्रीजी भी दीक्षित जीवनमें २ बार मासक्षमण, सिद्धि तप, ५० अठ्ठम, वर्धमान तपकी १५ ओलियाँ एवँ एक वर्षीतप कर के हाल बीस स्थानक तपकी आराधना कर रहे हैं। उनके गुरुणी सा. श्री वसंतप्रभाश्रीजीने भी पूर्वावस्थामें (कु. विजया के रूपमें) शादी होने के बाद भी बाल ब्रह्मचारिणी रहकर कैसे अद्भुत पराक्रम से संयम की प्राप्ति और साधना की है उसका रोम हर्षक वर्णन इसी किताबमें श्राविकाओंके दृष्टांत विभागमें पढने योग्य है ।
प्रस्तुत दृष्टांत में आलेखित सभी संयमी पवित्रात्माओं के आदर्श जीवनमें से प्रेरणा पांकर सभी को सुविशुद्ध संयम पालन का बल प्राप्त हो यही मंगल भावना ।
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एक ही बार प्रवचन श्रवण से २४ वर्ष की उम्रमें आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करनेवाले
दंपती दक्षाबहन और दिलीपभाई शाह
चारित्र संपन्न वक्ता और श्रद्धा संपन्न श्रोता का सुभग समन्वय होने से कैसा आश्चर्यप्रद परिणाम उत्पन्न हो सकता है यह हम दक्षाबहन के दृष्टांत में देखेंगें ।