________________
१५४
बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ....और उपरोक्त शुभ मुहूर्तमें भव्य एकादशाह्निक महोत्सव पूर्वक पांचों की दीक्षा संपन्न हुई, तब इस प्रसंग की अनुमोदना के लिए दक्षिण भारत, गुजरात, महाराष्ट्र आदि से पधारे हुए करीब २५ हजार जितनी जनता के समक्ष वर्धमानतपोनिधि प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा.ने उनका निम्नोक्त नूतन नाम जाहिर किया। (१) दीपकभाई - मुनि श्री हर्षघोषविजयजी (२) रतिलालभाई - मुनि श्री रत्नघोषविजयजी (३) रसिकभाई - मुनि श्री रम्यघोषविजयजी इन तीनों के गुरु के रूपमें प.पू.आ.भ. श्री विजय जयघोषसूरीश्वरजी म.सा. (हाल गच्छाधिपति) का नाम घोषित हुआ । (४) जतीनभाई - मुनि श्री जयदर्शनविजयजी के नाम से पू. गणिवर्य श्री जयसोमविजयजी म.सा. के शिष्य के रूपमें घोषित हुए और (५) भारती बहन सा. श्री भव्यगुणाश्रीजी के नाम से सा. श्री वसंतप्रभाश्रीजी म.सा. की शिष्या के रूपमें घोषित हुए।
प्रिय पाठक ! पू. गणिवर्य (हाल पंन्यास) श्री गुणसुंदरविजयजी म.सा. और पू. गणिवर्य श्री भुवनसुंदरविजयजी म.सा. के श्री मुखसे इस दृष्टांतको सुनने के बाद दि. १५-६-९५ के दिन अहमदाबाद में खानपुर जैन संघ के उपाश्रय में उपरोक्त मुनिराज श्री जयदर्शनविजयजी से प्रत्यक्ष भेंट हुई तब उनके पूर्व जीवन के विषय में जो प्रश्नोत्तरी हुई उसका सार अंश यहाँ पर प्रस्तुत किया गया है । कलिकालमें भी ऐसे रोमहर्षक अनुमोदनीय दृष्टांत विद्यमान हैं यह जानकर सहज रूप से ही अंत:करण से उद्गार निकल जाते हैं कि - "बहुरत्ना वसुंधरा" !....
दीक्षा के बाद गुरु भगवंतों की कृपादृष्टि से केवल ८ सालके दीक्षा पर्याय में वर्धमान आयंबिल तप की ४५ ओलियाँ मुनिश्री जयदर्शनविजयजीने कर ली हैं । (दीक्षा से पूर्व १२ ओलियाँ सजोड़े की थीं ।) ३७ वी ओली १९ आयंबिल और १९ उपवास एकांतरित कर के पूर्ण की थीं । २ साल पूर्व पालितानामें चातुर्मास था तब चातुर्मास के बाद तपश्चर्या के साथ साथ ९९ यात्राएँ भी कर लीं । ऐसे उग्र बाह्य तप के साथ साथ हररोज ८-९ घंटे तक कठिन शास्त्र ग्रंथों का स्वाध्याय चालु रहता है । इसके अलावा 'शांति सौरभ', 'धर्मधारा' इत्यादि मासिकों में