________________
बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २
१५१ मर्यादित समय के लिए बार बार व्रत लेने से अच्छा होगा कि हम हमेशा के लिए ही एक साथ व्रत का स्वीकार कर लें !.' जतीनभाई के लिए तो यह बात 'भाता था और वैद्यने बताया' इस कहावत जैसी होने से उन्हों ने इस बात के लिए सहर्ष तैयारी दिखलायी और भारतीबहनने भी इसमें अनुमोदना का सुर मिलाया। परिणामतः दोनोंने सगाई से नव महिने के बाद और शादी से ३ महिने पहले गुजरात में वापी शहर के पास वाघलधरा गाँवमें श्री संभवनाथ भगवान के समक्ष परमोपकारी पूज्यपाद आचार्य भगवंत श्री भुवनभानुसूरीश्वरीजी म.सा. के श्रीमुख से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया ।
व्रत ग्रहण के समय पू. गणिवर्यश्री जयघोषविजयजी म.सा. (हाल गच्छाधिपति आचार्यश्री) की वहाँ उपस्थिति होने से उनके साथ ज्ञानचर्चा द्वारा सुंदर मार्गदर्शन प्राप्त किया ।
इस घटना के तीन महिने बाद जब व्यावहारिक दृष्टि से दोनों की शादी हुई, तब शादी के बाद तुरंत ही वे गिरनारजी महातीर्थ की यात्रा करने के लिए गये । वहाँ आबाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथ भगवान के समक्ष सुविशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन के लिए शक्ति प्रदान करने की हार्दिक पार्थना की। शुद्ध अंतःकरण से की हुई इस प्रार्थना के प्रभाव से ही लग्न के बाद १० साल तक साथमें रहते हुए भी दोनों भाई-बहन की तरह निर्मल जीवन जी सके । सचमुच प्रभु कृपा और गुरु कृपा का प्रभाव अचिंत्य ही है।
दोनों के माता-पिता इस दंपती के व्रत ग्रहण की बात से अनभिज्ञ थे; क्योंकि व्रत लेने से पहले अगर उन्हें खबर दी जाय तो वे इस स्थितिमें व्रत ग्रहण के लिए अनुमति कभी नहीं दे सकते और व्रत ग्रहण के बाद भी अगर उन्हें खबर दी जाय तो भी जोरदार आघात लगने की संभावना थी। इसलिए शादी के बाद माता-पिता को व्रत ग्रहण की बात मालुम न होवे इस हेतु से दोनों को एक ही शयन खंडमें सोना पड़ता था । फिर भी व्रत रक्षा के लिए वे T आकार की पृथक् पृथक् शय्या पर शयन करते थे । जतीनभाई को कभी कभी व्रत पालन करने के लिए मानसिक पुरुषार्थ करना पड़ता था, मगर भारतीबहन के लिए तो व्रत पालन