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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १
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आठ और सोलह उपवासके साथ ६४ प्रहरी पौषध करनेवाले गजराजभाई मंडराई मोची
मोची कुलमें जन्मे हुए गजराजभाई मंडराई (उ. व. ४९) हाल अपनी धर्मपत्नी एवं ५ संतानों के साथ मुंबई डोंबीवलीमें रहते हैं और जनताके जूते सीनेका व्यवसाय करते हैं । कर्म संयोगसे उनके पास रहने के लिए पक्का मकान नहीं है, इसलिए जहाँ भी थोडी-सी जगह मिले वहाँ झोंपड़ी बाँधकर रहते हैं । 'रोज कमाना और रोज खाना' ऐसी गरीब परिस्थितिमें जीवनका गुजारा करते हुए गजराज भाई के अंतरकी अमीरात ( समृद्धि) अद्भुत है । कईबार नगरपालिका के अधिकारी उनकी झोंपडी तोड़ देते हैं, तब फुटपाथ के उपर अथवा अन्यत्र जहाँ जगह मिलती है, वहाँ सो जाते हैं । फिरसे मेहनत करके झोंपड़ी बाँधते हैं ।
ऐसी स्थितिमें समय व्यतीत करते हुए गजराजभाईके जीवनमें भाग्योदय हुआ । वे जहाँ जूते सीने के लिए बैठते थे, उनके पासमें एक कच्छी श्रावक देवेन्द्रभाई आणंदजी गडा (कच्छ - खारुआवाले) की दुकान है। ऋणानुबंधवशात् इस श्रावक को गजराजभाई के प्रति अनुकंपाका भाव पैदा हुआ । ४ साल पहले उन्होंने अपने एक खाली कमरेमें उनको रहनेकी निःशुल्क जगह दी और उनके योग्य काम भी देने दिलाने लगे ।
एकबार पर्युषण के दिन नजदीक में आ रहे थे, तब देवेन्द्रभाईकी बहनने गजराजभाई को सुखी होने के लिए धर्म-आराधना करने की प्रेरणा दी और जैन धर्म का स्वरूप संक्षेपमें समझाया ।
लघुकर्मी गजराजभाई को धर्मकी बात सुनकर बहुत खुशी हुई और उन्होंने पर्युषणमें आठ दिन तक एकाशन तप किया । बादमें तो हररोज जिनमंदिरमें जाकर प्रभुदर्शन करनेके बाद ही अपने व्यवसायका प्रारंभ करने लगे । मांसाहार और जमींकंद के त्यागकी प्रतिज्ञा ले ली और रात्रि भोजनका भी यथासंभव त्याग करने लगे । पर्वतिथियोंमें ब्रह्मचर्यका पालन करने लगे
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