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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ पूछा । तब नम्रता से प्रत्युत्तर देते हुए उस भाई ने कहा कि 'साहब ! मैं भंगी हूँ, इसलिए यहाँ बैठकर व्याख्यान सुनता हूँ ।
कर्म संयोगसे भंगी के घरमें उत्पन्न होने पर भी उनकी जिनवाणी श्रवण की अभिरुचि देखकर म.सा. को उनके प्रति अत्यंत वात्सल्यभाव उत्पन्न हुआ।
उनके साथ प्रेमसे वार्तालाप करने से पता चला कि वे वर्धमान तपकी २८९ ओली के आराधक प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय राजतिलकसूरीश्वरजी म.सा. के सत्संगसे जैन धर्मसे प्रभावित हुए थे । (योगानुयोग पूज्यश्रीका स्वर्गवास गत वर्ष गिरधरनगरमें चातुर्मास के दौरान हुआ है ।) वे हररोज नवकारसी चौविहार करते एवं नवकार महामंत्रकी माला भी गिनते थे ।
गिरधरनगरमें सेंकडों भव्यात्माओं को हररोज जिनपूजा करते हुए देखकर एकबार उन्होंने अपनी भावना को आचार्य भगवंत के पास अभिव्यक्त करते हुए कहा कि 'गुरुदेव । मुझे भी हररोज जिनपूजा करनी है, मगर मैं जिनमंदिर को भ्रष्ट करना नहीं चाहता । कृपा करके मेरे लिए कोई उपाय बताइए ।'
करुणानिधि आचार्य भगवंतने उनको उपाय बताया । उसके अनुसार उन्होंने अपने घरमें १८ अभिषेकयुक्त प्रभुजीको बिराजमान करके हररोज जिनपूजा करनेकी अपनी भावना पूर्ण की ! कैसी महान आत्मा !
. जैन कुलमें जन्म पाने के बाद और जिनमंदिर अपने घरके पासमें होने पर भी आलस्य, अज्ञानता इत्यादि किसी भी कारणवशात् जिनपूजा नहीं करनेवाली आत्माओंको इस दृष्टांतमें वर्णित आत्माको हररोज सुबहमें अहोभावपूर्वक याद करके नमस्कार करना चाहिए । इससे एक दिन उनका भी पुण्योदय जाग्रत होगा और प्रभुभक्ति के पुनीत पथ पर उनकी आत्मा भी प्रस्थान करेगी, इसमें संदेह नहीं है ।