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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ आदीश्वर भगवान की प्रथम पूजा ।
बालक के अद्भुत तथा आनन्दपूर्ण भाव को अभिव्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं । उस समय जो प्रेरणा उसमें उत्पन्न हुई वह मेरी समझ के बाहर थी । ऐसा दिखता था कि वह सबका स्वामी हो। उसके भाव इस समय एक ऐसे यौद्धा के भाव से मिलते-जुलते थे जिसने किसी प्रबल शत्रु को हराने के बाद हारे हुए शत्रु की राजधानीमें विजयोत्सव मनाते हुये प्रवेश किया हो । फिर बालक का ध्यान 'प्रथम पूजा' की तरफ गया । वहाँ के प्रचलित रिवाज के अनुसार सबसे उँची बोली लेकर मैंने दूध, जल, केसर, फूल, मुकुट और आरती की पहली पूजाएँ प्राप्त की । भक्ति भाव से बालक भी अपनी बचत राशि से तुरन्त परत जाकर बहुत सारे फूल और मालाएँ खरीद कर लाया । उसने एक के बाद एक ये सब पूजाएँ बहुत ध्यान तथा भक्ति से की। उसे इस बात की प्रसन्नता थी कि पक्षी से मनुष्य योनि पाने के बाद पुनः अपने भगवान की पूजा करने का महान सौभाग्य प्राप्त हुआ था ।
बालक का व्रत
बालक अपने ३१ दिन के यात्रा काल में प्रतिदिन पर्वत पर आदीश्वर भगवान की पूजा किये बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करता था अपने व्रत की दृढ़ता के लिए मुनि कपूरविजयजी की मंदिर में आने की प्रतीक्षा करता था । उनके आने पर वह उनके पास जाकर उनकी वंदना करता तथा दोपहर के पहले अन्न-जल ग्रहण न करने के अपने दैनिक व्रत को दुहराकर पक्का कर लेता ।
बालक की परीक्षा - १२.३० बजे पूजा समाप्त करने के बाद हम नीचे उतरने की तैयार कर रहे थे । बालक की जाँच करने के लिए उसे कुछ खाना खा लेने के लिए कहा(यद्यपि मैं उसके लिए कोई भोजन नहीं लाया था ।) बालक ने मेरी तरफ देखा और विनोद में पूछा, 'क्या आपको भूख लगी है ? काका साहब, मुझे लगता है कि आदीश्वर भगवान की पूजा के बाद