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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग
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जानकारी दी गयी थी इसलिए वह दीक्षा प्रसंगमें अपने पति के साथ उपस्थित हुई थी । लेकिन उसके पति विनोदराय चौहाण अंतरसे खूब नाराज थे, अतः वे दीक्षा के पंडालमें थोडी देर तक उपस्थित रहकर बीचमें ही बाहर चले गये थे
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इस तरह माता-पिता और बहनोई दीक्षा के लिये अत्यंत नाराज थे, लेकिन बादमें मुनि पद्मश्रमण विजयजीका तपोमय और ज्ञानमय विशिष्ट संयमी जीवन देखकर उनका हृदय परिवर्तन और जीवन परिवर्तन हुआ था । फलत: इन तीनों आत्माओंने श्रावक के १२ व्रतों का स्वीकार कर लिया है, इतना ही नहीं माता - पिताने २ साल पूर्व प. पू. आ. भ. श्री विजय पूर्णचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें राधनपुरमें उपधान करके मोक्षमालाका परिधान भी कर लिया है । इसी तरह उनकी भानजी जागृतिने भी राधनपुरमें १८ दिनका उपधान कर लिया ।
प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. कहा करते थे कि ' एक व्यक्ति मुनि जीवनका स्वीकार करता है तब उसके निमित्तसे अन्य अनेक जीव सच्चे श्रावक बनने लगते हैं । उपरोक्त दृष्टांत में इस कथन की यथार्थता दृष्टिगोचर होती है ।
मुनिश्री पद्मश्रमण विजयजी का संसारी छोटाभाई हिंमतलाल आज भी हलवद की मोची बाजारमें मोची का व्यवसाय करता है । गृहस्थ जीवनमें एस. एस. सी. तक व्यावहारिक शिक्षामें उत्तीर्ण मुनि पद्मश्रमणविजयजी ने दीक्षा लेकर गुरु आदिकी वैयावच्च के साथ साथ संस्कृत अभ्यास का भी प्रारंभ किया । सं. २०५३ में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन शंखेश्वर तीर्थमें उनसे भेंट हुई थी तब संस्कृत द्वितीय किताब का अध्ययन चालु था । अल्प संयम पर्यायमें उन्होंने वर्षीतप बीश स्थानककी ५ ओलियाँ और वर्धमान तपकी ३९ ओलियाँ इत्यादि तपश्चर्या कर ली है । सचमुच सत्संग पारसमणि से भी अधिक महान है, जो सामान्य आत्मा को भी संत बना देता है ।