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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १
सत्संग के प्रभावसे मोची, मुनि बने प्रभुदासभाई सचमुच प्रभुके दास बने
आजसे करीब १६ साल पूर्व शासन प्रभावक प. पू. आ. भ. श्री भक्तिसूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय के प. पू. आ. भ. श्री विजय विनयचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. आदिका चातुर्मास सौराष्ट्र के धांगध्रा शहरमें हुआ। जन्म से हलवद गाँव का निवासी लेकिन धांगध्रामें अपने ननिहालमें रहता हुआ प्रभुदास नामका २३ सालकी उम्रका मोचीकुलोत्पन्न एक युवक पूज्यश्री के परिचयमें आया । पूज्यश्री के वात्सल्य से भरपूर स्वभावने प्रभुदास पर मानो वशीकरण किया । वह प्रतिदिन जिनवाणी श्रवण के लिए आने लगा। फलतः उसे दयामय जैन धर्म के प्रति अत्यंत आकर्षण उत्पन्न हुआ।
सत्संग प्रेमी प्रभुदास चातुर्मास के बाद जो भी साधु साध्वीजी भगवं वहाँ पधारते उनका सत्संग करने लगा । धीरे धीरे उसके हृदयमें संयमकी भावना अंकुरित होने लगी। माता पिताके पास उसने अपनी भावना अभिव्यक्त की । लेकिन मोची कुल के संस्कारों के कारण माता सविताबेन और पिता मगनलालभाई चावड़ा उसको दीक्षा की अनुमति देने के लिए जरा भी समत नहीं थे । आखिर में अंतिम उपाय के रूपमें उसने माता पिताकी अनुमति के बिना ही संयम स्वीकारने का आयोजन किया और वि. सं. २०५१में मृगशीर्ष शुक्ल दशमी के शुभ दिन, ३७ वर्षकी वयमें, लालबाग (मुंबई)में परम शासन प्रभावक प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के समुदायमें सिद्धहस्तलेखक प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय पूर्णचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा के शिष्य पू. मुनिराज श्री युगचन्द्रविजयजी म.सा. का शिष्यत्व स्वीकार करके संयम अंगीकार किया। मोची प्रभुदासभाई अब मुनि पद्मश्रमण विजयके नामसे सच्चे अर्थमें प्रभु आज्ञाके पालक प्रभुके दास बने । . आणंद शहर के पास विद्यानगरमें विवाहित उनकी बहन वसंतबाई को भाई प्रभुदास के प्रति विशेष प्रीति होने से दीक्षा प्रसंगकी उनको