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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १
१३५ करीब १ महिने के बाद पुनः शंखेश्वर तीर्थ में पधारकर प. पू. आ. भ. श्री नवरत्न सागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें उपधान तप भी कर लिया। भविष्यमें शत्रुजय महातीर्थ की ९९ यात्रा एवं छ'री पालक संघमें चलकर तीर्थयात्रा भी करना चाहते हैं।
जिस तरह कीचड़ में से कमल खीलता है उसी तरह कर्मोदय से हीन कुल में उत्पन्न हुए मनुष्य भी सत्संग के द्वारा उत्तम कुलोत्पन्न मनुष्यों के लिए भी अनुकरणीय बन सके ऐसा उन्नत जीवन जी सकते हैं, यह बात ऐसे दृष्टांतों से सिद्ध होती है । इसीलिए तो सत्संग को पारसमणि से भी अधिक महिमाशाली कहा गया है । ऐसे सत्संग द्वारा सभी मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बनाएँ यही शुभेच्छा ।
पता : हरिजन भाणाभाई परमार एवं बेचरभाई आला Clo वनेचंदभाई वालजी पटवा (प्रागपुर वाले ज्योतिषी) भूतिया कोठा, मु.पो. ता. रापर (कच्छ-वागड) पिन : ३७०१६५
"यदि मुझे बचपन से ही जैन धर्म मिला होता तो ८६ । मैं शादी ही नहीं करती, किन्तु दीक्षा ही अंगीकार
__करती'' रेखाबहन ( मिस्त्री) आज जब एक ओर आधुनिक डिग्रीओं को पाया हुआ किन्तु जैन कुलमें जन्म पाने के बावजूद भी जैन धर्म के विषयमें बिल्कुल अज्ञात ऐसा कोई युवक अपने को जैन कुल में जन्म मिला इसके लिए अफसोस व्यक्त करते हुए कहता है कि "क्यों मेरा जन्म ऐसे जैन कुलमें हुआ कि जिसमें यह नहीं खाना, वह नहीं पीना, ऐसा नहीं देखना, वैसा नहीं करना इत्यादि कदम कदम पर कितने नियमों के बंधन की बातें कही गयी हैं ? इससे तो अच्छा होता कि मैं पशु होता या रानी एलिझाबेथ के घर में कुत्ते के रूप में मेरा जन्म हुआ होता तो रानीके हाथों में खेलना मिलता, रानी अपने हाथों से मुझे केक खिलाती" इत्यादि ।