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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १
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आत्मसाधक डॉ. प्रफुल्लभाई जणसारी (मोची)
___ आजसे करीब ३० साल पहले मुमुक्षु के रूपमें कच्छ-मोटा आसेंबीआ गाँवमें हमारा धार्मिक और संस्कृत अभ्यास चालु था तब वहाँ मोची कुलोत्पन्न डॉक्टर बाबुभाई के सुपुत्र प्रफुल्लभाई का थोड़ा परिचय हुआ था । लेकिन बादमें आजसे ८ साल पहले सं. २०५१ में गिरनारजी महातीर्थमें सामूहिक ९९ यात्राके दौरान महाशिवरात्रि के निमित्त से अपने मातृश्रीकी भावना के अनुसार डॉ. प्रफुल्लभाई गिरनारजी में आये थे तब उनके जीवनमें आत्मसात् बन गयी अंतर्मुखता, आत्मलक्षिता, सहज साधकता, सांसारिक भावों के प्रति उदासीनता और आत्मानंदकी मस्ती इत्यादि देखकर अत्यंत आनंद हुआ । महाशिवरात्रि की रातको गिरनारजीमें हजारों शैवधर्मी बावाओं का झुलुस निकलता है मगर आत्म मस्तीमें रमणता करनेवाले डॉ. प्रफुल्लभाई को उस झुलुसको देखने के लिए जरा सी भी उत्सुकता नहीं हुई !
कर्म संयोग से मोची कुलमें उत्पन्न होने पर भी पुरुषार्थ से उपरोक्त भूमिका को पानेवाले डॉ. प्रफुल्लभाई ‘मनुष्य जन्मसे नहीं किन्तु कार्योंसे महान बन सकता है' इस शास्त्रोक्त कथन के दृष्टांत रूप हैं ।
कुछ साल पहले प्रफुल्लभाई प्रतिदिन प्रातःकालमें पद्मासनमें बैठकर ३ घंटे तक ध्यान करते थे, लेकिन अब वे कहते हैं कि 'अब २४ घंटे सहज आनंदमय अवस्था रहती है । अब कहीं भी जानेकी उत्कंठा नहीं होती । जो भी समय मिला है उसमें निज स्वरूपमें रमणता करते हुए आनंद-परमानंद-निजानंदका अनुभव होता है । किसी भी प्रकारकी अपेक्षा रखे बिना, जीवनमें अधिक से अधिक सहजता और सरलता आ जाय तो निजानंदका अनुभव करने के लिए किसी गुफामें जानेकी या कुछ भी करनेकी जरूरत नहीं रहती ।'
सभी पाठक डॉ. प्रफुल्लभाई के दृष्टांतमें से प्रेरणा पाकर अपने जीवनमें