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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १ चढते परिणामों से विधिवत् पूर्ण कर लिया । विशिष्ट तपश्चर्या की पूर्णाहुतिमें उजमणा करना चाहिए ऐसी शास्त्राज्ञा के अनुसार रामसंगभाई ने यथाशक्ति बड़ी पूजा पढाकर उद्यापन करने के लिए सोचा था । मगर उनके मातापिता एवं धर्मपत्नी झीकुबाई तथा छोटेभाई दीपसंगने अत्यंत उल्लासपूर्वक अच्छा सहयोग दिया। फलतः सकल श्री संघका साधर्मिक वात्सल्य एवं स्वकीय ज्ञातिजनों को प्रीतिभोजन, तथा बीस स्थानक पूजन सह तीन छोड़के उजमणे से युक्त जिनेन्द्रभक्तिमय त्रिदिवसीय महोत्सवमें ५१ हजार रू. का सद्व्यय किया । इस महोत्सव की रथयात्रा में समस्त राजपूत लोगों ने भी उल्लासपूर्वक उपस्थित होकर खूब अनुमोदना की थी ।
एक बार रामसंगभाई के मातृश्री धनुबाईने वढवाण की जैन पाठशाला के अध्यापक श्री जीतुभाई को भोजन का आमंत्रण दिया, तब जीतुभाई ने कहा कि 'अगर आप कुछ भी व्रत नियम स्वीकारेंगे तो ही मैं आपके निमंत्रण का स्वीकार करूंगा । धनुबाई ने तुरंत ही प्रतिदिन जिनपूजा एवं चौविहार करने की प्रतिज्ञा ग्रहण कर ली, जो आज भी अखंड रूपसे चालू है । वे भी अपने हाथों से चंदन घिसकर जिनपूजा करती हैं ।
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रामसंग भाई की धर्मपत्नी भी हररोज जिनदर्शन, सोने एवं जागने के समय में १२ १२ नवकार का स्मरण एवं व्याख्यान श्रवण आदि आराधना करती हैं ।
उनका सुपुत्र महीपतसिंह एवं सुपुत्री तथा छोटेभाई दीपसंग की संतानें भी हररोज जैन पाठशालामें जाती हैं ।
रामसंग भाई के घरमें कोई भी जमींकंद को नहीं खाते हैं । छोटे भाई दीपसंगभाई भी रामसंगभाई को धर्म कार्योंमें संपूर्ण सहयोग देते हैं । वे स्वयं एवं महीपतसिंह दोनों मिलकर कीराणे की दुकान को सम्हालते हैं, जिससे रामसंगभाई कुछ समय तक प्रामाणिकतापूर्वक दुकानमें व्यवसाय करके बाकी का समय धर्माराधना में व्यतीत कर सकते हैं ।
सं. २०५३ में रामसंगभाई ने शत्रुंजय महातीर्थ की ९९ यात्रा भी विधिवत् पूर्ण की हैं और इस वर्ष उनका वर्षीतप चालू है । अब तो उनके जीवनमें बस एक ही लगन है कि 'सस्नेही प्यारा रे, संयम कब ही मिले ।