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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १
जब तक दीक्षा अंगीकार न कर सकें तब तक सर्वप्रकार की हरी वनस्पति एवं मुंगके सिवाय सभी प्रकारके द्विदलका भी उन्होंने परित्याग किया है।
सचमुच, धार्मिक पड़ोशी की मित्रता एवं जिनवाणी का श्रवण जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाकर किस तरह 'कर्म बांधनेमें शूरवीर आत्मा को धर्म द्वारा कर्मों को तोड़ने में शूरवीर' बना देता है, एवं कुटुंबमें जब एक व्यक्ति सम्यक् रूपसे धामिक बनता है तब समस्त परिवार के ऊपर उसका कितना सुंदर प्रभाव पड़ता है, इसका जीवंत उदाहरण श्री रामसंगभाई हैं । उनके चारित्र स्वीकारने के शुभ मनोरथों को शासनदेव शीघ्र पूर्ण करें यही हार्दिक शुभ भावना ।
२-३ मुनिवरों के मुखसे श्री रामसंगभाई की अत्यंत अनुमोदनीय आराधनाओं की कुछ बातें पालितानामें सुनी थीं और योगानुयोग जूनागढ से बड़ौदा की ओर विहार के दौरान दि. ६-६-१९९५ के दिन वढवाणमें ही रामसंगभाई से प्रत्यक्ष मिलनेका अवसर आया । उनकी आराधना के बारे में विशेष जानकारी के लिए जिज्ञासा व्यक्त करने पर सर्वप्रथम तो उन्होंने विनम्र भावसे कहा कि 'जिस तरह वृक्षकी जड़ें धरती के अंदर गुप्त रहने से ही वृक्ष मजबूत बनता है, उसी तरह सुकृत भी गुप्त रहें यही इच्छनीय है' । लेकिन बादमें हमारी प्रबल जिज्ञासा को देखकर उन्होंने कुछ बातें बतायीं । बाकी की जानकारी उनके बीस स्थानक तप के उद्यापन महोत्सव की आमंत्रण पत्रिका पाठशाला के अध्यापक श्री जीतुभाई द्वारा प्राप्त हुई, उसमें से मिली । इसी के आधार से प्रस्तुत लेख तैयार किया गया है । शंखेश्वरमें अनुमोदना समारोहमें रामसंगभाई भी पधारे थे। उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 13 के सामने ।
पता : रामसंगभाई बनेसंगभाई लींबड दाजीपरा, वढवाण सीटी, जि. सुरेन्द्रनगर (गुजरात) पिन : ३६३०३० फोन : ५०८३४ दुकान ५११९१, (घर) पी.पी. दीपसंगभाई