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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १
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इस व्रत का सुविशुद्ध रूपसे पालन करने के लिए रामसंगभाई ने अपने कौटुंबिक सदस्यों की संमतिपूर्वक दुकान के समय के सिवाय दिन - रात उपाश्रय में रहने का प्रारंभ किया । गद्दी का त्याग करके संथारे के ऊपर शयन करने लगे । भोजन के लिए उपाश्रयमें ही टिफिन मँगाने लगे । उसमें से सुपात्रदान एवं साधर्मिक भक्ति करने के बाद ही वे भोजन करते हैं ।
बस आदिमें यात्रा के दौरान अनायास से भी अगर विजातीय व्यक्ति का थोड़ा सा भी स्पर्श हो जाय तो प्रायश्चित्त के रूपमें एक धान्य का आयंबिल करनेका संकल्प किया । इस तरह करीब २०० आयंबिल हो गये । बादमें प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय भद्रंकरसूरीश्वरजी म.सा. के मार्गदर्शन के मुताबिक यथायोग्य परिवर्तन किया ।
व्रत पालन के द्वारा अंतर के अध्यवसाय निर्मल होने लगे एवं भूतकालमें अज्ञानदशा में जो पाप हुए थे वे अटकने लगे । उन पापों की शुद्धि के लिए अध्यात्मयोगी प.पू. आ. भ. श्रीमद् विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. के पास विधिवत् निर्दभभावसे भव आलोचना स्वीकार करके चढते परिणाम से दो वर्षमें प्रायश्चित्त परिपूर्ण कर लिया । अपनी आत्मा को अत्यंत निर्मल बना दिया ।
वर्धमान आयंबिल तप का नींव डाली एवं आज तक ४० ओलियाँ पूर्ण कर ली हैं । सम्यक् ज्ञान की आराधना के लिए ज्ञानपंचमी तप भी विधिपूर्वक पूर्ण किया ।
यतनाप्रेमी रामसंगभाई लघुशंका एवं स्नान आदि का पानी भी गटरमें नहीं डालते, मगर पारिष्ठापनिका समिति का पालन करते हुए निर्जीव भूमिमें परठवते हैं ।
प्रतिदिन उभय काल प्रतिक्रमण एवं पर्वतिथियों में पौषधप्रत अंगीकार करते हैं ।
प्रत्येक तीर्थंकर भगवंत, जिनकी विशिष्ट आराधना से अगले तीसरे भवमें तीर्थंकर नामकर्म बाँधते हैं उन बीस स्थानकों की महित सुनकर रामसंग भाई ने बीस स्थानक तपका प्रारंभ किया एवं केवल ३ वर्ष एवं ३ महिनोंमें ३८० उपवास एवं २० छठ्ठ (बेला) सहित बीस स्थानक तपको