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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २
३७९ भी मानव को अपना हाथ नहीं देना था । उसका दिल तो अशरीरी अनंत सिद्ध भगवंतों के साथ एकात्मरूप हो जाने के हेतु से चारित्रधर्म की आराधना करने के लिए लालायित हो उठा था ।
स्वजनों के द्वारा शीघ्र चारित्र स्वीकार के लिए अनुमति पाने की भावना से उसने जिनभक्ति, गुरु भक्ति, उभयकाल आवश्यक क्रिया, स्वाध्याय तप-त्याग-इत्यादि से जीवन को अलंकृत किया था ।
वस्त्रों में अत्यंत सादगी, ६ महिनों तक एक ही साड़ी का उपयोग, संथारे के उपर शयन, रोटी-पानी या दाल-रोटी से भोजन करने का अभ्यास, दही और कढा विगई का मूलसे त्याग, अपने भाई की शादी के प्रसंग में भी केवल दाल-चावल का भोजन इत्यादि के द्वारा उसने अपने वैराग्य को मजबूत बनाया था और स्वजनों को भी अपने वैराग्य की प्रतीति करायी थी।
एक बार तो चारित्रधर्म को शीघ्र पाने की उत्कंठा से वह घर से चूपचाप भाग गयी थी और 'तुझे खुशी से शीघ्र चारित्र दिलायेंगे' ऐसा पक्का भरोसा मिलने पर ही वह वापस लौटी थी !
उसका तीन वैराग्य देखकर माता-पिता और भाई आदिने प्रसन्नतापूर्वक अष्टाह्निका महोत्सव के साथ चारित्र दिलाया ।
'अपने गाँव की मूर्तिपूजक कुमारिका की यह प्रथम ही दीक्षा हो रही है' ऐसा सोचकर साणंद संघ भी अत्यंत उल्लसित हुआ था ।
गुजरात में अहमदाबाद के पास साणंद गाँव के इस कन्यारत्न का नाम था कुमुदबहन केशवलाल संघवी । २१ साल की भरयुवावस्था में प्रवजित होकर वे प.पू.आ.भ. श्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय के अलंकार रूप सा.श्री पद्मलताश्रीजी बने ।
"चौथे आरेके साध्वीजी" के रूपमें ख्यातियुक्त, आत्मैकलक्षी इन साध्वीरत्न के ५० वर्ष के सुदीर्घ संयम पर्याय को लोग आज भी नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं । धन्य साध्वीजी ! धन्य श्री जिनशासन !