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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ जीवनको अलंकृत किया और साथमें अपूर्व वात्सल्यभाव के कारण २१ मुमुक्षुओं की जीवननौका के सुकानी भी बन गये हैं।
संसारी पति प्रविणभाई भी अब उनकी जीवनप्रतिभा से प्रभावित होकर नतमस्तक हुए हैं और विविध पुण्य प्रसंगों पर सा. श्रीवसंतप्रभाश्रीजी आदि की प्रेरणा से अपनी लक्ष्मी का सद्व्यय करके संयमजीवन की अनुमोदना करते हैं।
महाराष्ट्र, मुंबई, गुजरात, कच्छ, कर्णाटक आदि में विहार के द्वारा सुंदर शासन प्रभावना करनेवाले उग्र विहारी, मिताहारी,स्वउपधि के स्वयंधारी, साध्वीरत्न सा.श्री वसंतप्रभाश्रीजी को, प.पू.आ.भ. श्री विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. ने जंग-ए-बहादूर के विशेषण से अलंकृत किया है।
इस तरह शादी के बाद भी आबालब्रह्मचारी रहकर विजयाबहन में से वसंतप्रभाश्रीजी बने हुए 'जंग-ए-बहादूर' साध्वीजी के तप-त्यागमय संयम जीवन की हार्दिक अनुमोदना ।
"मुझे औदारिक देहधारी मनुष्य के साथ शादी नहीं करनी है" कुमुदबहन का अद्भुत पराक्रम
युवावस्था में आयी हुई, रूपवती, सुकुमाल आकर्षक गात्र युक्त, अपनी गुणवती बेटी-बहन के लिए माता-पिता और भाई अच्छे वर की खोज कर रहे थे और एक दिन वे अपने मनचाहे युवक एवं उसके परिवारजनों को कन्या दिखाने के लिए अपने घर ले आये । कन्या को वस्त्रालंकार से अलंकृत होने की सूचना दी गयी थी ... मगर यह क्या? यह कन्या तो फटेपुराने वस्त्रों को पहनी हुई, बिखरे हुए बालों के साथ नौकरानी जैसी दिखती हुई वहाँ उपस्थित हुई ! ऐसी कन्या के साथ कौन शादी करना पसंद करे? वे अपना स्पष्ट नकारात्मक अभिप्राय सुनाकर चले गये !
कन्याने ऐसा क्यों किया ? क्योंकि उसे औदारिक देहधारी किसी