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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २
३७७ महिने बाद में मोहाधीन माता-पिता ने कु. विजया की शादी कर दी । विजया को अनिच्छा से भी बुजुर्गों की आज्ञा शिरोमान्य करनी पड़ी । मगर वह अब अबला नारी नहीं थी किन्तु ब्रह्मवत के कारण सबला हो गयी थी । उसने सुमधुर किन्तु स्पष्ट शब्दों में अपने पतिदेव को समझाने की कोशिश की कि- " मैं चतुर्थव्रतधारी हूँ, इसलिए शादी होने पर भी अपना व्रत अखंडित रखना चाहती हूँ, संयम की भावना से भावित हूँ, आप किसी अन्य कन्या से शादी करना चाहते हैं तो कर सकते हैं ।"
यह सुनकर प्रविणभाई चौंक उठे । उन्होंने अपने मन को समझाने की कोशिश की मगर निष्फल हुए । इसलिए विजयाबहन अपने व्रत को अखंडित रखते हुए केवल ६ महिने ससुराल में रही बादमें अपने पिताके घर वापस लौट आयी । कभी कभी औपचारिक रूप में ससुराल में जाती थी और ससुरालवालों को संयम मार्ग की महिमा समझाकर अपने को संयम का स्वीकार करने के लिए अनुमति प्रदान करने के लिए समझाती थी। ससुराल वाले भी एक और विजयाबहन को मनाने का और दूसरी ओर अपने मन को भी मनाने का प्रयास करते थे, मगर दोनों में से किसी भी बात में सफलता नहीं मिलती थी ।
आखिर ससुरालवालों को मनाने में निष्फल हुई विजयाबहन पीहर की पालखी में बैठकर, वर्षीदान देकर वि.सं. २०११ में वैशाख सुदि ७ के दिन दीक्षित हुई और ३६ करोड़ नवकार जप के आराधक प.पू. आ.भ.श्री. यशोदेवसूरिजी म.सा. के शिष्यरत्न प.पू. तपस्वी आ.भ. श्री त्रिलोचन सूरिजी म.सा. के आज्ञावर्तिनी पू.सा. श्री चंद्रश्रीजी की शिष्या पू.सा. श्री सुभद्राश्रीजी की शिष्या पू.सा. श्री रंजनश्रीजी की शिष्या पू.सा. श्री वसंतप्रभाश्रीजी के नाम से उद्घोषित हुए । . दीक्षा लेने के बाद प्रगुरुणी और गुरुणीजी की वैयावच्च करते हुए उन्होंने कर्मक्षय के लिए उग्र तपश्चर्या करने का प्रारंभ किया । मासक्षमण, सिद्धितप, श्रेणितप, धर्मचक्रतप, चत्तारि-अठ्ठ-दश-दोय तप, बीस स्थानक तप, वर्षीतप, १७-१६-१५-१२-११ उपवास, अछाई, अनेकबार अठ्ठम-छठ, वर्धमान तप की ५० ओलियाँ इत्यादि तप के द्वारा अपने