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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ सजग रहते थे। एक ही मकान में रहते हुए भी शय्या हमेशा अलग अलग कमरे में ही करते थे। मकान की चाभी या अन्य कोई वस्तु एक दूसरे को देनी हो तो भी वे एक दूसरे के हाथको स्पर्श किये बिना उपर से ही देते थे।
वि.सं. २०२९ में उन्होंने पालिताना में प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय भद्रसुरीश्वरजी म.सा. एवं प.पू.आ.भ. श्री विजय ॐकारसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें २८ दिनका लोगस्स सूत्र का उपधान तप किया। तब सुश्रावकश्री ने अपनी धर्मपत्नी को कहा कि - 'अब हमें २८ दिन तक पौषध के द्वारा साधु जैसा शुद्ध जीवन जीना है, इसलिए अब हम २८ दिन तक एक दूसरे से बात भी नहीं करेंगे । ऐसी जिनाज्ञा उनके जीवनमें आत्मसात् की हुई थी। .
उपधान तप के अंतमें बर्तन एवं नकद राशि आदि जो भी विशिष्ट प्रभावना मिली थी वह सब उन्होंने पालिताना की वर्धमान तप आयंबिल संस्थामें अर्पण कर दी । तप के शिखर पर त्याग का कलश चढाया ।
बाद में उपरोक्त सुश्रावकश्री ने सद्गुरू की विशेष कृपा प्राप्त करके दीक्षा ली है। आज २८ साल से वे संयम की अनुमोदनीय आराधना कर रहे हैं । शारीरिक अवस्था आदि कारणों से उनकी धर्मपत्नी दीक्षा नहीं ले सकी हैं मगर वह भी श्रावकधर्म का अत्यंत अनुमोदनीय रूप से पालन कर रही हैं ।
सौराष्ट्र के जिला कक्षा के एक शहरमें रहती हुई इस सुश्राविका ने अपने पतिदेव को कहा था कि आप सरकारी अधिकारी हैं । आप चाहेंगे तो रिश्वत लेकर करोड़ों रूपये कमा सकेंगे, मगर मेरी आपसे आग्रह पूर्वक विज्ञप्ति है कि - 'हमारे घरमें अनीति का एक भी रूपया नहीं आना चाहिए । मैं अनीति के धन से झेवर पहनने के बजाय नीति के घन से सादगी युक्त जीवन जीती हुई शील-सदाचार रूप अलंकार से जीवन को सजाना चाहती हूँ।' पतिने भी धर्मपत्नी की विचारधारा की अहोभाव से अनुमोदना की और नीतिपूर्वक ही अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया था।
इस दंपती की बेमिसाल ब्रह्मगुप्ति एवं नीति-निष्ठा संयम आदि सद्गुणों की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । धन्य श्री जिनशासन ।