________________
बहुरत्ना वसुंधरा : भाग
२३९
आराधनाओं से मघमघायमान उनका जीवन सचमुच अत्यंत अनुमोदनीय एवं अनुकरणीय भी है
1
-
२
हिंमतभाई की धर्मदृढता के कुछ अनुमोदनीय प्रसंग हम यहाँ देखेंगे । (१) एकबार शामको प्रतिक्रमण के बाद वे जिनालयमें कायोत्सर्ग कर रहे थे तब भवितव्यतावशात् पूजारी को उनकी उपस्थिति का खयाल नहीं रहा और उसने जिनालय के द्वार बंद कर दिये । कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर हिंमत भाई को इस बात का खयाल आया मगर उन्होंने द्वार खुलवाने के लिए जरा भी कोशिश नहीं की, बल्कि 'आज तो सारी रात प्रभुजी के सांनिध्य में रहने का परमसौभाग्य संप्राप्त हुआ है' ऐसी भावना से पूरी रात कायोत्सर्गमें ही बीतायी। प्रातः कालमें द्वार खोलने के बाद पूजारी को अपनी गलती का ख्याल आया तब उसने क्षमायाचना की किन्तु हिंमतभाई ने उसे जरा भी उपालंभ नहीं दिया, बल्कि प्रभुध्यान का ऐसा उत्तम मौका मिलने के कारण आनंद ही व्यक्त किया । कैसी अप्रमत्तता ! अंतर्मुखता !! और प्रभु के साथ प्रीति !!!....
(२) ७-८ साल पहले महाराष्ट्र के अहमदनगर शहरमें सिद्धचक्र महापूजन की विधि करवाने के लिए हिंमतभाई गये थे तब मुंबई से फोन आया कि - तुरंत वापिस लौटें, आपकी धर्मपत्नी का स्वास्थ्य अत्यंत गंभीर है । लेकिन दृढधर्मी हिंमतभाई ने प्रत्युत्तर में कहा कि- 'श्री सिद्धचक्र महापूजन को अधूरा छोड़कर मैं नहीं आ सकता, जो होनेवाला होगा वह होगा । प्रभु भक्ति के प्रभाव से अच्छा ही होगा' ऐसा कहकर जरा भी चिता किये बिना अत्यंत भाव पूर्वक पूजन करवाया और धर्मप्रभाव से उनकी धर्मपत्नी का स्वास्थ्य भी अच्छा हो गया । कैसी अपूर्व धर्मश्रद्धा । कैसा अनासक्त भाव !!!
(३) एकबार हिंमतभाई के घरमें सरकार की और से रेड़ पडी ।" धर्म श्रद्धा से चाभिएँ अमलदारों को सौंपकर वे स्वयं भावपूर्वक नवकार महामंत्र का स्मरण करने लगे । अमलदार तिजोरियाँ खोलकर देखने लगे । अनेक रूपये आदि होते हुए भी उनको दिखाई नहीं दिये ! आखिर वे चाभियाँ वापिस लौटाकर चले गये । इसे कहते हैं 'धर्मो रक्षति रक्षितः ' ।