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बहुरत्ना वसुंधरा, : भाग २
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हुई, फलतः अहमदाबाद में ही एक जगह जिनालय की खास आवश्यकता थी । उसके समाचार मुझे मिलते ही मैंने मौका देखकर वहाँ के श्री संघ को विज्ञप्ति कि यह लाभ मुझे दें । संघने मेरी विज्ञप्ति का स्वीकार किया । वि.सं.२०४६ में माघ शुक्ल चतुदर्शी के शुभ दिन में उस जिनालय में ४५० वर्ष प्राचीन श्री सहस्रफणा पार्श्वनाथ भगवंत की प्रतिष्ठा प.पू. आचार्य भगवंत श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म.सा. के वरद हस्त हुई ।
प्रारंभ में हम किराये के मकान में रहते थे, लेकिन जब से उपरोक्त जिनालय बनवाने का संकल्प किया तब से आर्थिक परिस्थिति ठीक होती गयी। फलतः वि.सं. २०४९ में राधनपुर से सिद्धाचलजी महातीर्थ का छ: 'री'पालक यात्रा संघ प.पू. आ.भ. श्रीकल्याण सागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें निकालने का महान लाभ भी हमारे परिवार को मिला । (अन्य श्रावक के द्वारा हमें ज्ञान हुआ कि इस संघ की पूर्णाहुति के प्रसंग पर अहमदाबाद से ७५ बस एवं राधनपुर आदि से ७५ बस, कुल मिलाकर १५० लक्झरी बसों के द्वारा श्री जिनदासभाईने साधर्मिक बंधुओं को पालिताना निमंत्रित कर के २ दिन तक उनकी अत्यंत अनुमोदनीय भक्ति की थी । तीर्थमाल के दिन पूरे पालिताना नगर को भोजन का निमंत्रण दिया था । उस दिन कोई तांगेवाला भी अगर भोजन के लिए आता तो उसे भी प्रेमसे भोजन कराया गया था । )
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उपरोक्त जिनालय निर्माण एवं छ: 'री' पालक यात्रा संघ के बाद प्रभुभक्ति के भावों में उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होती गयी । मेरे परम उपकारी आचार्य भगवंत ने भी मुझे जिनभक्ति विशिष्ट रूपसे करने के लिए प्रेरणा दी । मुझे भी लगा कि मुझमें तप करने की विशेष शक्ति नहीं है, लेकिन प्रभुभक्ति संसार सागर को तैरने के लिए सरल और सचोट उपाय है । पार्श्वनाथ भगवान के जीवने पूर्व भवमें प्रभुजी के ५०० कल्याणकों की उजवणी हर्षोलास के साथ की थी, तो मैं कम से कस हररोज ५०० प्रभुजी के दर्शन-पूजन तो करूं ! ऐसी भावना से प्रेरित होकर मैं हररोज सुबह ५.३० से ९.३० तक ४४ जिनालयों में प्रभुपूजा करता हूँ । उसके बाद नवकारसी करके पुनः आसपास के १० जिनालयों में पूजा करता हूँ ।
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