________________ 427 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 सकता है / संयम के असंख्य योग स्थानों में से एक दो योग भी पराकाष्ठा बनकर जीव को सर्व श्रेष्ठ बना सकते हैं। इसलिये श्रावकों को तो संयमी आत्मा को वंदन-सत्कार कर के कृष्ण महाराजा जैसा लाभ कमा लेने में ही सार है। दर्शन और ज्ञान से युक्त चारित्र की जो शक्ति होती है, वह मुक्ति से कम कोई इनाम लिये बिना वापस नहीं लौटती है / एकमात्र मनुष्य भवमें ही संयम की साधना हो सकती है। इसी कारण कहा जाता है कि, 'मासक्षमण करने वाले गृहस्थ से भी नवकारशी करने वाला साधु महान है, जागते हुए श्रावक से सोता हुआ साधु ज्यादा आराधक है / ' परमात्मा का संघ चतुर्विध जरूर है किन्तु नमस्कार महामंत्र में नमस्करणीय परमेष्ठी अरिहंत परात्मा से लेकर लोक के सर्व साधु महात्मा तक ही सीमित हैं, उसमें श्रमणोपासक भी पूज्य नहीं किन्तु पूजक सिद्ध हो जाता है। फिर भी साधक महात्मा जब तक सिद्ध नहीं हो जाता तब तक छद्मस्थावस्था में छोटी बड़ी गल्तियों का अनुभव कर सकता है, जिससे कैवल्य ज्ञान की अवस्था के पूर्व तक की अनाभोग से उद्भवित स्खलना के लिये प्रायश्चित्त-शुद्ध साधु हर श्रमणोपासक के लिये वंदनीय पूजनीय और स्मरणीय हैं। स्वदोष दर्शन और परगण दर्शन की साधना के साधक किसी भी स्थिति-परिस्थिति में मन से प्रसन्न ही रहते हैं, क्योंकि उनकी साधना अन्य को बाधक नहीं बनती है। स्वलक्षी संयमी स्वपरहित करने में सफलता पाता है। कमसे कम जितने अंश में संयमाचार आत्मसात् होता है, उतने अंश तक का प्रचार परोपकारी बन जाता है / इसीलिये कहते हैं कि "सव्वत्थ संजमं रक्खिज्जा" क्योंकि "विना संयम प्रवृत्त्या भवात् मुक्तिः, न भूता न भविष्यति" / संयम की वृत्ति और प्रवृत्ति के बिना किसी की मुक्ति न हुई है, न होगी, तीर्थंकर परमात्मा महावीर के जीव ने भी 27 भवों में संयम की प्रगति क्रमशः की है। जिसमें मरीची के भव में उत्सूत्र प्ररूपणा और कुल-मद की गल्तियों से एक कोट कोटि सागरोपम संसार की वृद्धि और नीचगोत्र कर्म की सजा हुई / सोलहवें भवमें राजपुत्र विश्वभूति बनकर दीक्षा ली, घोर तप किया, किन्तु तपका अजीर्ण क्रोध उदय में आने से