________________
बहुरत्ना वसुंधरा : भाग
-
५८
पप्पुभाई (उ. व. ३३) को एक दिन पड़ौसी जैन श्रावक जिन मन्दिरमें प्रभुदर्शन करवाने के लिए अपने साथ ले गये । वीतराग परमात्माका मनोहर मुखारविंद देखकर सरदारजी को इतना आनंद हुआ कि तबसे वे हररोज जिनमंदिरमें जाकर प्रभुदर्शन करते हैं ।
धीरे-धीरे जैन साधु भगवंतों के सत्संगसे उनको जैन धर्मका रंग अधिक अधिकतर लगता गया और फलतः उन्होंने पिछले १० सालमें ८ बार अठ्ठाई (८ उपवास ), १ बार १६ उपवास एवं मासक्षमण ( ३० उपवास) भी कर लिया । वि. सं. २०५१ में सम्मेतशिखर तप किया वे तपश्चर्या के दिनोंमें प्रतिकमण भी करते हैं ।
सं. २०५० में धर्मचक्र तप प्रभावक प. पू. पंन्यास प्रवर श्रीजगवल्लभ विजयजी गणिवर्य म.सा. ( हाल आचार्यश्री ) का चातुर्मास खड़कीमें हुआ तब पप्पुभाई ने पूज्य श्रीकी प्रेरणासे धर्मचक्रतप जैसे ८२ दिनके दीर्घ तपकी आराधना भी कर ली, इतना ही नहीं किन्तु इस तपके सभी तपस्विओंको एक दिन बियासना करवाने का महान लाभ भी उन्होंने लिया ।
३३ वर्षकी युवावस्थामें भी पप्पुभाई शादी नहीं करते हैं, उसके पीछे दो महान हेतु रहे हुए हैं । एक तो माताकी सेवाके लिए एवं दूसरा कारण यह है कि, यदि वे शादी करना चाहें तो सामान्यतः अपनी जातिकी कन्याके साथ शादी करनी पड़ती है, और यदि उस कन्याको तप-त्याग प्रधान जैन धर्मके प्रति अभिरुचि पैदा नहीं हो तो शायद विवाह संबंधको टिकानेके लिए उन्हें जैन धर्म छोड़ना पड़े जो उनको किसीभी हालत में स्वीकार नहीं हैं ।
V
आज के अत्यंत विलासी वातावरणमें भी, जैन धर्मकी आराधना के लिए स्वेच्छासे युवावस्थामें भी ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाले सरदारजी पप्पुभाई कोटिशः धन्यवादके पात्र हैं । २ साल पूर्वमें उन्होंने जैन धार्मिक पाठशाला ५५५५ रूपयोंका दान भी दिया था ।
सचमुच, बहुरत्ना वसुंधरा ( पृथ्वी बहुत रत्नोंवाली है) यह उक्ति यथार्थ ही है न ? पप्पुभाई अरोरा ( गुरु मोहिंदर सींग) पप्पुभाई की