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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग प्रत्युत्तरमें लिखा कि 'प्रक्षाघात से ग्रस्त सास की सेवा को थोड़ी भी गौण करके अभी यात्रा करने के लिए यहाँ आने की आवश्यक्ता नहीं है । तुम्हारे लिए तो अभी बीमार सास की सेवा करके उनके आशीर्वाद प्राप्त करना ही सच्ची तीर्थयात्रा है।' इस पत्रको पढ़ते ही दक्षाबहनने पालिताना जाने की अपनी भावना पर रोक लगा दी । धन्य साध्वीजी...! धन्य श्राविका ...!
कुछ साल पूर्व में उन्हों ने एक नया मकान लिया है । उस मकान के वातावरण को मंदिर जैसा पवित्र रखने की भावनावाले दक्षा बहन और दिलीपभाई ने निर्णय किया है कि इस मकान में अतिथिको भी अब्रह्मका पाप करने नहीं मिलेगा ।
ऐसे दृष्टांत सुनने से ऐसी विचारणा होती है कि- 'अबला मानी जाती स्त्री भी अगर चाहे तो अपने पवित्र आचरण द्वारा परिवारमें भी कैसा धर्ममय अनुमोदनीय माहौल बना सकती है !... मगर इसके लिए जरूरत है कुसंग से दूर रहने की और श्रद्धापूर्वक सत्संग करने की ।' पता : दक्षाबहन दिलीपभाई मूलचंद शाह,
फेशन सेन्टर, / १, इरानी, डहाणु रोड - २० ( महाराष्ट्र)
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आजीवन बालब्रह्मचारी दंपती !
मुंबई में रहता हुआ एक गुजराती युवक अपने घरमें गृह मंदिर होते हुए भी कभी प्रभु दर्शन करता नहीं था ।
एक बार धर्मचक्रतप प्रभावक प. पू. पं. श्री जगवल्लभविजयजी म.सा. (हाल आचार्यश्री) का वहाँ चातुर्मास हुआ था । उनकी प्रेरणा से उपरोक्त युवक का बड़ा भाई भी सामूहिक धर्मचक्रतप नामकी ८२ दिन की तपश्चर्या में शामिल हुआ था । तपश्चर्या के दौरान उसका स्वास्थ्य कर्मसंयोग से कुछ अस्वस्थ हुआ । तब अपनी मातृश्रीकी प्रेरणांसे वह नास्तिक युवक उपाश्रय में
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