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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २
निर्णयमें बदलाव नहीं हो सकता है" ।
उस के बाद दक्षाबहन जिन मंदिरमें गये और अत्यंत श्रद्धापूर्वक
एकाग्र चित्त से प्रभु प्रार्थना करते हुए कहा कि 'हे प्रभु ! यदि मेरी भावना सच्ची है तो आप मुझे जरूर सहाय करें और इसकी प्रतीतिके रूपमें अभी जो ३ फूल आप के मस्तक पर चढे हुए हैं उसमें से बीचमें रहा हुआ फूल अभी ही मेरी समक्ष नीचे गिरे !'... और सचमुच तुरंत मध्यस्थ फूल नीचे गिरा । दक्षाबहन के आनंद का पार न रहा । उनका मनोबल एकदम बढ गया । उनको लगा कि, 'अब प्रभु मेरे साथ हैं फिर मुझे चिंता किस बातकी !'.....
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और सचमुच, उनके पति भी अल्प समय में ही ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करने के लिए तैयार हो गये ! शुभ मुहूर्तमें दोनोंने गुरुदेव के पास विधिवत् आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का स्वीकार किया तब प. पू. पं. श्री चन्द्रशेखर विजयजी म. सा. द्वारा लिखित 'जोजे अमृत कुंभ ढोळाय ना' किताब प्रभावना के रूपमें सभी को दीं ।
दिलीपभाई की माता को कई साल तक पक्षाघात हो गया था, तब दक्षाबहनने एक बेटी अपनी माँ की सेवा करे उससे भी विशिष्ट रूप से अपनी सास की सेवा की थी। सास के पलंग के पास ही वे बैठती थीं । समय समय पर आहार-निहार कराना, मालिस करनी, दवा पिलानी इत्यादि ऐसी अद्भुत सेवा करते थे कि देखनेवाले चकित रह जाते थे । अभी करीब ३ साल पूर्व ही उनकी सास का समाधिपूर्वक देहावसान हुआ है ।
कुछ साल पूर्व दक्षाबहन के उपकारी पार्श्वचन्द्रगच्छीय सा. श्री भव्यानंदश्रीजी चतुर्विध श्री संघ के साथ पालितानामें ९९ यात्रा कर रहे थे । तब दक्षाबहनने अपनी सास से सविनय विज्ञप्ति की कि - 'यदि आप की आशीर्वाद सह अनुमति हो तो मैं आप की सेवा का इन्तजाम कर के सिद्धगिरि की एक यात्रा गुरणी श्री की निश्रामें कर आऊँ ।' ऐसी सुशील, सुविनीत और सेवाशील पुत्रवधू की ऐसी उत्तम भावना में अंतराय रूप बनें ऐसी सास वे नहीं थीं । उन्होंने आशीर्वाद के साथ अनुमति दी, तब दक्षा बहनने तुरंत पत्र लिखकर गुरुणीश्री को अपनी भावना का निवेदन किया। तब उचितज्ञ साध्वीजीने