________________ 536 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 द्रव्य नहीं वापरने का अभिग्रह देने का निवेदन किया !... अन्त में आचार्य भगवंत ने दीक्षा का मूहूर्त नहीं निकले तब तक के लिए उपयुक्त अभिग्रह दिया और दीक्षा के बाद जिस प्रकार गुरुणी कहें उसके अनुसार करने को कहा !... सं. 2031 में 27 वर्ष की उम्र में दीक्षित हुई इस कन्या ने साढ़े चौदह वर्ष के दीक्षा पर्याय में निम्नलिखित आश्चर्यप्रद तप - त्याग की भव्य साधना की है। (1) 500 आयंबिल (2) मासक्षमण (3) भद्रतप (4) श्रेणितप (1) प्रत्येक पारणे में एकासन के साथ अठ्ठम से पाँच वर्षीतप !!! उसमें भी प्रत्येक वर्षीतपमें उत्तरोत्तर एक-दो-तीन-चार- पाँच विगई का मूल से त्याग करते गये !!! पहले वर्षीतप में कड़ा विगई का त्याग / दूसरे वर्षीतपमें कड़ा तथा गुड़ का त्याग / तीसरे वर्षीतपमें कड़ा गुड तथा तेल का त्याग / चौथे वर्षीतप में कड़ा, गुड, तेल तथा दही का त्याग। पाँचवे वर्षीतप में कड़ा गुड़, दही तेल तथा घी का त्याग / उन्होंने इन सभी विगइयों का मूल से त्याग किया / अर्थात् उपरोक्त विगइयों का जिसमें थोड़ा भी उपयोग होता है, वैसी दूसरी कोई भी वस्तु नहीं वापरते थे !!! इन वर्षीतपों के दौरान अनेक वार चौविहार अठ्ठम की तपश्चर्या की। उनको कर्म संयोग से टी.बी. का रोग हुआ / उसमें भी विराधना न हो इसलिए वे एक्स रे फोये नहीं निकलवाते और खून तथा युरीन की जाँच भी नहीं करवाते / 9 महिनों के निर्दोष उपचार के बाद वापस स्वास्थ्य अच्छा होते ही उन्होनें कर्म शत्रुओं के खिलाफ जंग छेड़ दिया ! में भी आयंबिल ही करना !! आयंबिल भी एक ही धान्य से करना !!! उसमें भी परिमड्ढ़ का पच्चक्खाण करना !!! उसमें भी घरों में से सहजता से जो निर्दोष गोचरी मिले उससे ही चलाना !!!... ऐसी विशिष्ट तपश्चर्या के प्रमाव से उनका देहाध्यास काफी मंद हो गया था। नश्वर काया की माया समाप्त होकर अविनश्वर ऐसे आत्म तत्त्व का अनुभव करने की दिशा में उनकी साधना आगे बढ रही थी। 'कार्यं साधयामि वा देहं