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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १
१३७ बचपन से ही जैन धर्म मिला होता तो मैं शादी ही नहीं करती, किन्तु अवश्य दीक्षा अंगीकार कर लेती, जिससे पापों से तो बच सकती" इतना बोलते हुए उनकी आंखोमें से अश्रुधारा बहने लगी । कैसी भवभीरुता और पापभीरुता।
वे हररोज जिनमंदिर में जाकर प्रभुदर्शन अचूक करती है । व्याख्यान श्रवण का योग होने पर व्याख्यान श्रवण करती है । चातुर्मास के दौरान जो भी तप जप आदि सामूहिक आराधनाएँ होती है उनमें वे अवश्य शामिल होती है। नवपदजी की ५ ओलियाँ की हैं । एक ओली केवल मुंग की दाल से की थी। प.पू. आ. भ. श्रीविजय रत्नसुंदरसूरीश्वरजी म.सा. द्वारा लिखित लक्ष्मणरेखा किताब की परीक्षा भी उन्होंने दी थी । हमेशा उबाला हुआ अचित्त जल ही पीती है । वर्षीतप करने की भावना है। हरेक मिष्टान्न का त्यागहै। पानी केवल भोजन के समय ही लेती है। तीन प्रकार के फल सिवाय बाकी सभी फलों का भी त्याग है । करीब ४ साल से अजपाजप चालु है । अनेक प्रकार के दिव्य अनुभव होते हैं।
बचपन से ही रेखाबहन के दिल में भावना होती थी कि प्रहलाद और ध्रुवको छोटी उम्र में भगवान के दर्शन हुए तो मुझे क्यों नहीं होंगे ? मैं भी जंगल में जाकर तप करुंगी । मुझे भी कोई संत महात्मा मिल जायेंगे तो उन्हें गुरु बनाउँगी । लेकिन जब से कुछ समझ आयी तब से दिलमें होता था कि मेरे गुरु तो संसार त्यागी ही होने चाहिए, भोगी नहीं। आखिर शादी के बाद मुझे जैन धर्म की प्राप्ति हुई, सच्चे देव गुरु धर्म मिले और जीवन धन्य हो गया ।
एक बार उन्होंने व्याख्यान में सुना कि 'समेत शिखरजी तीर्थ की चन्द्रप्रभस्वामी की ढूंक से, प्रातः सूर्योदय समय अगर वातावरण स्वच्छ होता है तो अष्टापदजी तीर्थ का दर्शन हो सकता है' और उसी रातको स्वप्न में उनको चन्द्रप्रभस्वामी के दर्शन हुए । तभी से प्रभुजी के प्रति श्रद्धा-भक्ति एवं संवेग-निर्वेद के भावों में अत्यंत अभिवृद्धि हुई है ।