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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १
को पिछले २० वर्षों से सत्संग द्वारा जैन धर्म का रंग लगा है ।
सं. २०४९ में लखतरमें तीन दिनकी हमारी स्थिरता थी, तब पीतांबर दास का प्रत्यक्ष परिचय हुआ ।
उपाश्रय या स्थानकमें कोई भी जैन साधु-साध्वीजी पधारते हैं तब उनके दर्शन-वंदन सत्संग एवं सेवा का लाभ लेने के लिए पीतांबरदास अचूक पहुँच जाते हैं । मानों साक्षात् भगवान पधारे हैं, ऐसा आनंद उनको होता है ।
तीन दिनकी हमारी वहाँ स्थिरता के दौरान वे हररोज ६-७ बार उपाश्रयमें आते थे । स्वरचित देव - गुरु-भक्ति के गीत भावपूर्वक सुनाते थे । जमींकंद आदि अभक्ष्य भक्षणसे दूर रहनेवाले पीतांबरदासने अपने जीवनमें २२ नियम ग्रहण किये हैं । वे हररोज चौविहार ( रात्रि भोजन त्याग ) करते हैं । (जैन - कुलमें जन्म होने के बाद भी निःसंकोच पसे जमींकंदका भक्षण एवं रात्रि भोजन करनेवालों को एवं जमाने के बहाने से अपना बचाव करनेवालों को इस दृष्टांतमें से खास प्रेरणा लेने जैसी है ।)
लोगोंके जूते सीनेका व्यवसाय करते समय भी वे अपने पासमें स्लेट एवं लेखनी रखते हैं और बीच-बीचमें जब थोड़ा सा भी समय मिलता है, तब अपने मनको सदैव शुभ- भावों में रमणता करवाने के लिए वे स्लेट पर 'अच्छे काम करना भाई । बुरे काम करना नहीं । अच्छी दृष्टि रखना भाई । खराब दृष्टिं रखना नहीं' ईत्यादि सुवाक्य लिखते रहते हैं ।
विहार के समय उन्होंने अत्यंत भावपूर्वक हमको डाक एवं फुलस्केप पन्ने बहोराये एवं गाँवकी सीमा तक हमारे साथ चले और अपने बेटेको अन्य गाँव तक हमारे साथमें भेजा ।
मणिनगर के चातुर्मास दौरान उनके करीब २० पत्र आये थे । प्रत्येक पत्र केवल उपर्युक्त प्रकारके सुवाक्यों से भरपूर होते हैं । क्वचित् फुल स्केपके चार पृष्ठ भरकर सुवाक्य लिखकर भेजते थे ।
वे हररोज जिनमंदिर के द्वारके पास खड़े रहकर भगवान के