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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २
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अप्रमतत्ता भी ऐसी थी कि रातको ११ बजे के बाद ही सोते थे और प्रातः ४ बजे निद्रा त्याग करके स्वाध्याय जप आदि करते थे । प्रौढ वय में दीक्षा लेने के बावजूद भी संस्कृत व्याकरण की दो किताब, संस्कृत चरित्र वांचन, संस्कृत काव्य, न्याय इत्यादि अध्ययन किया था और आचारांग, सूयगडांग, ठाणांग इत्यादि आगमों का भी अध्ययन किया था ।
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वि. सं. २०४९ में चातुर्मास के लिए पालिताना की ओर जा रहे थे तब कर्म संयोग से जानलेवा अकस्मात से उनका कालधर्म हो गया मगर उस वक्त भी वे अंगुलियों की रेखाओं के सहारे नवकार महामंत्र ही गिनते थे । सचमुच कर्म को किसीकी शर्म नहीं होती । उनकी आत्मा जहाँ भी होगी वहाँ समाधिभावमें ही होगी, क्योंकि उन्होंने इस भवमें भी अनुकूल और प्रतिकूल प्रत्येक परिस्थितियों में समताभाव को अच्छी तरह से आत्मसात् किया था । वि. सं. २०४९ में अहमदाबादमें पालडी एवं साबरमती में उनके दर्शन का लाभ मिला था तब अत्यंत वात्सल्यभाव से उन्होंने वार्तालाप किया था ।
इस दृष्टांत में से प्रेरणा पाकर सभी भव्यात्माएँ धर्माराधना में सुदृढ बनें यही शुभाभिलाषा ।
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तोते ने आदीश्वर दादाकी पूजा की और बन गया श्री सिद्धराजजी ढड्डा (पुनर्जन्म की अद्भुत घटना)
सर्वज्ञ कथित आगमों में पुनर्जन्म के हजारों दृष्टांत उपलब्ध हैं । इसी तरह जयपुर की राजस्थान युनिवर्सिटी में परामनोविज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर हेमेन्द्रनाथ बेनरजीने आजसे करीब ३० साल पूर्व में विश्वभरमें से पूर्वजन्मस्मृति की करीब ५०० से अधिक घटनाओं का संशोधन करके आत्मा के अमरत्व के सिद्धान्त में अपनी श्रद्धा व्यक्त की थी । डो. एलेकझान्डर कॅनन नामके वैज्ञानिक ने संमोहन विद्या के
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