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अनुमोदना से स्वयं का संसार एक कोय कोटि सागरोपम जितना बढ़ा दिया जिसमें अनेक क्षुल्लक भवों की वृद्धि हो गयी और मुख्य २७ भवों में एकबार सिंहावतार और दो बार नरक भी दुःख-दुविधा रूप प्राप्त हो गयी ।
४५ लाख योजन के विराट समयक्षेत्र में मनुष्य संख्या २९ अंक तक जाती है, जिसमें जैन धर्म प्रेमी तो समुद्र-बिन्दु संख्या में परिमित हैं । रत्नपुंज जैसे अत्यल्प श्रीसंघ पर बहुमान रखने वाला अनुमोदना के अवसर को क्यों चूके ?
निमित्त शास्त्र आठ प्रकार के हैं, जिसमें से लक्षणशास्त्र का ज्ञाता मुखादि की आकृति से ही जान सकता है कि किसकी नींव धर्म भूमि में कितनी गहरी है । भवाभिनंदी-पुद्गलानंदी जीवों की संख्या संख्यातीत होती है, जिसमें से भवभीरू आत्मानंदी जीवों के लक्षण अनूठे होते हैं, वैसे जीवात्मा जहाँ भी हो जैसी भी अवस्था में हो जैन मार्गी क्रियाओं के प्रेमी बनकर धर्म पुरूषार्थ द्वारा प्रकाशित होकर प्रशस्ति पात्र ही बनते हैं। ज्योतिरंग कल्पवृक्ष रात्रि में भी सूर्य प्रकाश सी रौशनी देते हैं, वैसे ही धर्मी आत्मा जीवन से तो स्वप्रकाशित होते ही हैं, साथ-साथ मृत्यु के बाद भी उनका आदर्श प्रकाश अनेकों के जीवन का पथप्रदर्शक बनता है।
प्रभु वीर के सभी गणधर जन्म से तो अजैन ही थे न ? अनेक शास्त्रों के रचयिता परमात्म-शासन की श्रृंखला बनने वाले शय्यंभवसूरि जैसे आचार्य ब्ग्रह्मण में से ही तो श्रमण बने थे । वैसे ही साधु दान से महान विभूति तीर्थपति आदिनाथ का जीव प्रथम भव में जैन मार्ग का अनजान ही था न ? हरिजन-से क्षुल्लक कुल से हरिकेशी मुनिराज बनना, खूनी से मुनि बनने वाला अर्जुनमाली, घोर हत्यारे दढप्रहारी का अणगारी बनना, भूख के दुःख दमन हेतु भिखारी से अणगारी बन कर राजा संप्रति बन जाना, देवपाल गोपाल द्वारा प्रभ भक्ति से ही तीर्थंकर नाम कर्म की उपार्जना या शराब छोड़कर देवता बनने वाले के उदाहरण इसी हकीकत के साक्षी बनते हैं न ? कि जैन धर्म कितना उदार है कि इसमें आने वाले पापी भी पुण्यात्मा, महात्मा तो ठीक किन्तु परमात्मा तक बन गये हैं।
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