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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १
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विजयनेमिसूरीश्वरजी म.सा. के सत्संगसे जैन धर्मका ऐसा सुंदर रंग लगा कि उनके सुपुत्र प्रवीणभाई और पौत्र योगीन्द्रकुमार भी जैन धर्मका अच्छी तरहसे पालन करते हैं ।
वि. सं. २०८१ में धर्मचक्र तप प्रभावक प. पू. पंन्यास प्रवर श्री जगवल्लभविजयजी म.सा. (हाल आचार्यश्री ) का चातुर्मास धंधुकामें हुआ तब उनकी प्रेरणासे योगीन्द्रकुमारने केवल ८ सालकी बाल्य वयमें ८२ दिनका धर्मचक्र तप जैसा महान तप ( प्रारंभमें और अंतमें अठ्ठम तथा बीचमें एकांतरित ३७ उपवास और ३९ बियासना) किया इतना ही नहीं किन्तु चातुर्मास के बादमें धंधुका से शंखेश्वरजी का छौरी पालक संघ निकला उसमें भी यात्रिक के रूपमें शामिल होकर उसने हर्षोल्लास के साथ पदयात्रा की ।
तीन तीन पीढियोंसे जैनधर्म का अच्छी तरह से पालन करनेवाले राठौड़ परिवार को हार्दिक धन्यवाद सह अनुमोदना ।
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पता : प्रवीणभाई भीमजीभाई राठौड़, मु. पो. खरड. ता. धंधुका, जि. अहमदाबाद (गुजरात)
'कम्मे शूरा सो धम्मे शूरा' यानि हठीजी दीवानजी ठाकोर
अंग्रेजीमें कहावत है कि 'Every Saint has his past and every man has his future' (अर्थ : प्रायः प्रत्येक संतोंका भी पापोंसे दूषित भूतकाल होता है और प्रत्येक (पापी) मनुष्यका भी ( उज्ज्वल) भविष्यकाल हो सकता है) अर्थात् कोई जीव कितना भी पापी क्यों न हो, मगर वह हमेशा के लिए पापी नहीं रहेगा । शुभ निमित्त मिलने पर वह सज्जन या संत भी हो सकता है । इसलिए किसी भी पापी जी का कभी भी तिरस्कार नहीं करना चाहिए किन्तु प्रेम और सहानुभूतिसे उसे पुण्यशाली बननेका मौका देना चाहिए ।