________________ 594 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 की भक्ति करने में सहायक बनता / मेरी आत्माने पूर्व जन्मों में जैन धर्म की आराधना की होगी इसलिए मुझे तीन जगत के उद्धारक श्री जिनेश्वर भगवंत का शासन और आप जैसे गुरु भगवंत के हृदय में स्थान मिला है इसके लिए में आपका अत्यंत ऋणी हूँ। यह पत्र लिखते हुए मेरी आँखों से अश्रुधारा बह रही है / मैंने जो कुछ भी आराधना की है, मेरी आत्मा के लिए की है / दीक्षा लिए बिना सभी आराधनाएँ बिना सक्कर के दूध जैसी हैं / मेरे जीवन में आज दिन तक जो भी आराधना हुई है उसका श्रेय परमात्मा और गुरु भगवंत को है / बहुमान द्वारा मुझे गर्व नहीं करना है क्योंकि पूर्वकालीन और वर्तमान कालीन अनेक उत्कृष्ट आराधकरलों के चरणों की धूल बनने की पात्रता भी मुझमें नहीं है। (दृष्टांत नं. 13 - नाई पुरषोत्तमभाई कालिदास पारेख - साबरमती) मेरे जैसे गरीब और सामान्य आदमी को आपने शंखेश्वरजी जैसे महान तीर्थ में बहुमान के लिए बुलाया है और श्रीदेव-गुरु और सार्मिक बंधुओं के दर्शन वंदन आदिका जो मौका दिया है उसके लिए मैं आपका बहुत ही ऋणी हूँ / (दृष्टांत नं. 54 - भाणजीभाई प्रजापति ( थानगढ-सौराष्ट्र)) आपमें और मुझ में बहुत ही फर्क है, क्योंकि आप ज्ञानस्पी साबून से अंत:करण में रहे हुऐ अज्ञान रूपी मैल को धोते हैं और मैं पैसे लेकर लोगों के कपड़ों का मैल धो रहा हूँ। कपड़े फिर से मैले होते हैं मगर शुद्ध किया गया अंतःकरण प्रायः मलीन नहीं होता / मेरे जैसे सामान्य आदमी को आपने जो अनमोल मौका दिया है उसके लिए कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं / पत्र लिखते हुए * हृदय भावोद्रेक से भर गया है, इसलिए यहीं रुकता हूँ। (दृष्टांत नं. 30 - धोबी रामजीभाई (कोंठ-गुजरात))