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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ की उम्र है, संसार की मौज मजा करने की वय है, युवावस्था में धर्म करने की क्या जरूरत है ? जब व्यवसाय से निवृत्त होंगे तब वृद्धावस्था में प्रभुगुण गायेंगे" (टाईम पास करने के लिए !).. इत्यादि ।
लेकिन ज्ञानी भगवंतोंने तो युवावस्था में ही खास धर्म करनेका कहा है । वृद्धावस्थामें इन्द्रियाँ शिथील हो जाती हैं, शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है, शरीर में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं । तब, यदि बाल्यावय से या युवावस्थामें धर्म के संस्कार दृढ नहीं किये होते हैं तो प्रभुका नाम स्मरण करने की बात तो दूर रही, किन्तु प्रभुका नाम सुनना भी अरुचिकर लगे तो आश्चर्य की बात नहीं । इसलिए युवावस्था में शरीर सशक्त होता है तभी ही विशिष्ट कोटि की धर्म आराधना और आत्मसाधना करके अनंत भवों में की हुई भूलों को सुधार लेनी चाहिए ।
कर्णाटक राज्य के बेलगाम जिले के निपाणी गाँव में रहते हुए डोक्टर अजितभाई हीराचंद दीवाणी (हाल उम्र व. ३६) को यह बात पूर्व के पुण्योदय से सत्संग द्वारा समझ में आ गयी और फौरन तदनुसार आचरण करना भी प्रारंभ कर दिया ।
वि. सं. २०४३ में २५ साल की उम्र में प. पू. आ. भ. श्री विजय धर्मजित्सूरिजी म.सा. की प्रेरणा से उन्होंने हररोज जिनपूजा और नवकारसी करने का प्रारंभ कर दिया । उस के बाद उसी साल में पू. मुनिराज श्री जयतिलकविजयजी म.सा. का चातुर्मास निपाणी में होने पर उनकी प्रेरणा से स्वद्रव्य से अष्टप्रकारी जिनपूजा और हररोज चौविहार करने का प्रारंभ कर दिया । वि. सं. २०४८ में धर्मचक्रतप प्रभावक प.पू. पं. श्री जगवल्लभविजयजी गणिवर्य म.सा. (हाल आचार्य) के चातुर्मास में उनकी प्रेरणा से ८२ दिनका धर्मचक्र तप किया, नवपदजी की आयंबिल की ओली की और नित्य बियासन और उभय काल प्रतिक्रमण करने का प्रारंभ कर दिया। जिंदगी में ५०० आयंबिल पूरा करने की भावना से पर्वतिथियों में आयंबिल करते हैं । हररोज प्रातः काल में १ सामायिक एवं प्रतिक्रमण करते हैं । हररोज २॥ घंटे तक भावपूर्वक स्वद्रव्य से अष्टप्रकारी जिनपूजा करते हैं। जिनवाणीश्रवण का मौका वे कभी चूकते नहीं हैं।