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________________ २६८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ प्रज्ञाचक्ष प्रावकों की - अदभुत आराधना कर्म संयोग से बाल्यवय में ही आँखों की रोशनी खोने के बावजूद भी हताश होकर आत्महत्या के निर्बल विचार करने के बजाय, सुदेव-सुगुरु-सुधर्म की शरण अंगीकार करके जीव सम्यक् पुरुषार्थ करता है तब कैसी अद्भुत स्थिति को प्राप्त कर सकता है उसको हम विविध दृष्टांतों के द्वारा देखेंगे। (१) शंखेश्वर महातीर्थ के पास समी गाँव में प्रज्ञाचक्षु पंडितश्रावक मोतीलालभाई डुंगरजी (उ.व. ७९) रहते हैं । १० साल की छोटी उम्र में उन्होंने मेहसाणा में श्री यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाला में पाँच साल तक रहकर संस्कृत-प्राकृत एवं कर्मग्रन्थादिका अच्छा अभ्यास किया। हाल कई वर्षों से वे समी में रहकर साधु-साध्वीजी भगवंतों को एवं मुमुक्षुओं को ६ कर्मग्रंथ आदिके अर्थ का अध्ययन अच्छी तरह से करवाते हैं । उनके पास पढकर १५ मुमुक्षु कुमारिकाओंने दीक्षा ली है । वे बाल ब्रह्मचारी और महातपस्वी हैं । वर्धमान आयंबिल तप की १४५ (१०० + ४५) ओलियाँ, सिद्धितप, श्रेणितप, आदि दीर्घ तपश्चर्याएँ की हैं । हाल वृद्धावस्थामें भी प्रतिदिन एकाशन तप करते हैं । पाठशाला में धार्मिक अध्ययन करवाते हैं। संघ का कारोबार सम्हालते हैं । हररोज जिनालय की प्रथम मंजिल पर रहे हुए ११ प्रभुजी की प्रक्षाल से लेकर नवांगी पूजा वे स्वयं करते हैं । आसपास के गाँवों में जहाँ जैन आबादी नहीं है वहाँ जब जैन साधु-साध्वीजी पधारते हैं तब एक लड़के को साथमें लेकर वे वहाँ जाते हैं और पूज्यों की हर प्रकार की वैयावच्च वे अच्छी तरह से करते हैं। प्रातः करीब ३ बजे निद्रात्याग करके सामायिक- प्रतिक्रमण- कार्योत्सर्गजप- ध्यान आदिविशिष्ट साधना भी करते हैं । शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोह में पंडित श्री मोतीलालभाई भी पधारे थे । उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 18 के सामने ।
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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