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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ मननीय चिंतन स्वरूप 'दिव्यदर्शन' - हिन्दी और गुजराती पाक्षिक और साप्ताहिक पत्रों का वर्षों तक संपादन कर के कुमारपालभाईने सत् साहित्य को लाखों लोगों तक पहुँचाया है । जिनपूजा, सामायिक, शास्त्र स्वाध्याय, चिंतन-मनन इत्यादि आत्मजागृति प्रेरक श्रावक के आचारों का भी वे अच्छी तरह से पालन करते रहते हैं । वे अत्यंत उदार, दयालु, उत्तम विचारक और आचार संपन्न सुश्रावक हैं ।
अब हम कुमारपालभाई की उत्तम विचारणा और बातचीत के कुछ अंश देखेंगे। .
(१) एकबार किसीने उनको पूछा - 'आपकी ओफिस में आप के गुरुदेव की तस्वीर क्यों नहीं लगायी ?' हँसते हुए कुमारपालभाईने प्रत्युत्तर दिया कि - 'गुरु को दीवार पर नहीं, दिलमें रखना चाहिए !'.....
(२) 'सेवा और त्याग के क्षेत्र में अपने-पराये का विचार नहीं करना चाहिए ।'
___ (३) शिबिर के किसी युवक को पान खाता हुआ देखकर कुमारपालभाई ने मजाक की - 'अरे भाई ! पान तो भेड़-बकरियाँ खाती हैं, हम तो मानव हैं !'
(४) कभी कोई कुमारपालभाई के पास से कुछ राशि सहाय के रूपमें ले गये, बाद में अन्य व्यक्ति ने कहा कि - 'उस व्यक्तिने आप के साथ बनावट की है, तब कुमारपालभाईने कहा - 'कोई हर्ज नहीं, सुकृत करते हुए कभी ऐसा भी होता है, मगर हमें उदार दिल रखना चाहिए । हमें तो सुकृतका लाभ मिल ही गया ।'
कुमारपालभाई के अनेकविध सुद्गुण एवं सत्कार्यों में से सभी अच्छी प्रेरणा प्राप्त करें यहीं शुभाभिलाषा ।
शंखेश्वर महातीर्थ में आयोजित अनुमोदना समारोह में कुमारपालभाई की प्रेरणा से श्री के. पी. संघवी की ओर से सभी आराधकरत्नों को चांदी का सिक्का भेंट दिया गया था । मगर सन्मान से दूर रहनेवाले वे स्वयं उस समारोह में अनुपस्थित ही रहे थे ।