________________
बहुरत्नों वसुंधरा : भाग - २
१६७ चतुर्विध श्री संघ की सामूहिक ९९ यात्रा का आयोजन हुआ था, तब उन्होंने भी संघपति के रूपमें आर्थिक सहयोग दिया था, मगर ९० दिनों के उस कार्यक्रम के दौरान वे कभी भी बहुमान का स्वीकार करने के लिए या संघपति की माला पहनने के लिए भी आये नहीं थे !
(२) एक नूतन जिनालय में मूल नायक प्रभुजी की प्रतिष्ठा का लाभ बड़ी रकम की बोली बोलकर एक श्रावकने लिया था, मगर बादमें उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर होने से, उस धनराशि को वे अर्पण कर सकें ऐसी स्थिति नहीं थी, तब इस बंधु युगलने गुप्त रूपसे उस धनराशि को संघ के कार्यकर्ताओं को अर्पण कर दी और कहीं भी अपने नामकी तक्ती लगवाने की लेशमात्र भी अपेक्षा नहीं रखी !...
___(३) प्रस्तुत किताब की गुजराती आवृत्तिमें अपने माता-पिता की तस्वीर के बदलेमें स्व. देवजीभाई की तस्वीर प्रकाशित करने के लिए गांधीधाम निवासी एक भावुक आत्माने भावभरी विज्ञप्ति की और उसके बदले में उचित घनराशि अर्पण करने की भावना व्यक्त की, तब नानजीभाई ने तस्वीर नहीं प्रकाशित करने की सविनय विज्ञप्ति के साथ वह राशि उन्होंने स्वयं अर्पण कर दी।
(४) आज तो नानजीभाई को मानसिक मौनकी अवस्था सहज हो गयी है, मगर साधना के प्रारंभ कालमें वे हर महिनेमें ८ दिन लगातार मानसिक मौनके लक्ष्यके साथ एकांत में रहकर वाचिक मौन करते थे और पर्युषण के ८ दिन तो अचूक मौन करते थे । तब एक बार गांधीनगर से सरकारी ओफिसर का पत्र आया । करोडों रुपयों के एक बड़े प्रोजेक्ट का टेन्डर भरकर प्रत्यक्ष मिलने के लिए नानजीभाई को बुलाया था । लेकिन उस वक्त पर्युषण के दिन होने से नानजीभाई नहीं गये और मौन ही रहे । पर्युषण के बाद जब वे गांधीनगर गये तब उनकी ऐसी साधना निष्ठा देखकर सरकारी ओफिसर भी चकित हो गया । वह ओफिसर रमण महर्षि का भक्त था । अन्य लोगों को मुश्किल से ५-१० मिनट का समय देनेवाले उस ओफिसरने नानजीभाई के साथ २ घंटे तक आनंद पूर्वक चर्चा की और अन्य कंपनीओंकी अपेक्षासे देवजीभाई-नानजीभाई की शाह