________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 ___ माताने प्रभावती के ललाट पर कुमकुम का तिलक कर हाथ में श्रीफल तथा अक्षत देकर फाल्गुन वदि 2 को आशीर्वाद दिया कि, "बेटा ! तेरी मनोकामना सफल हो ! भव भम्रणा का निस्तार करना और हमको भी तारना !..." आखिर पिता - पुत्री शाम को गोधुली बेला में प्रतिक्रमण का बहाना बनाकर कटासना लेकर घर से निकले / वह दोनों गोधरा होकर बोटाद पहुँचे / वहाँ वाड़ीलालभाई ने अपनी पुत्री की दीक्षा की बात पू. आ. श्री अमृतसूरिजी को बतायी / किन्तु उन्होंने भी ससुर पक्ष की अनुमति न होने से दीक्षा देने की मना की / प्रभावतीबहन ने अन्तमें अपने उपकारी सा. श्री. गुणश्रीजी के पास जाकर गुप्त दीक्षा लेने के बारे में अपनी भावना बताई कि, "मैं अकेली अच्छे स्थल पर जाकर स्वयं अपने हाथों से कपड़े पहनकर कार्य सिद्ध कर लूँगी !... ___ साध्वीजी भगवंत ने मुमुक्षु की आशा को निराशा में बदलने से रोकने के लिए उसे सहानुभूति के साथ दीक्षा के सभी उपकरण दे दिये। बोटाद से वाडीभाई, मुनिमजी, प्रभावतीबहन तथा दीवालीबाई (सा.श्री गुणश्रीजी की प्रगुरुणी की संसारी बहिन)उमराला आये / वहाँ सा. श्री गुणश्रीजी की परिचित मणिबहन नाम की सुश्राविका थी / वाड़ीभाई ने साध्वीजी का पत्र उन्हें पढाया / उसमें लिखा था कि, "तुम आनेवाली बहिन की योग्य सहायता करना / " मणिबहन ने कहा कि, "यहाँ का संघ इस प्रकार की गुप्त दीक्षा को स्वीकृति नहीं देगा, परन्तु तुम यहाँ से ढाई कोस दूर दड़वा माता के मन्दिर के पास जाओ / वहाँ इस कार्य में कोई अन्तराय नहीं डाल सकेगा।" आखिर चारों ने रात वहाँ व्यतीत की और दूसरे दिन सवेरे जल्दी नाई को साथ लेकर उपर्युक्त मंदिर के पास पहुँचे / प्रभावतीबहन के आनंद का पार न था / वहाँ उनका मुंडन करवाया / उन्होंने वहाँ एक मगरी के पीछे ठंडे पानी से स्नान करके, दीवालीबाई के सूचन अनुसार वड़ की छायामें पूर्व दिशा सम्मुख मुख रखकर नमस्कार मंत्र गिनते - गिनते स्वयं साध्वीजी का वेष अंगीकार कर लिया !!! पिताश्री तथा दीवालीबहन ने मंगल के रूपमें कपड़ों पर केसर के छींटे डाले / और तीन जनों ने अक्षत से नूतन दीक्षित को बधाया।