________________
१४४
बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ "धन्य धन्य अरिहंतों को, दिखाया जिन्होंने श्रावक धर्म । धर्म परिणत ऐसे जैन ने पा लिया है जीवन का मर्म ॥ तलप रख संयम की, जो जीते हैं जीवन आदर्श । वैसे श्रमणोपासक के दर्शन से, क्यों न होवे हमें प्रहर्ष ?"
पू. गणिवर्य म.सा. ने ऐसे धर्मानुरागी अजैन-जैन और व्रतधारी श्रावक-श्राविकाओं का बहुमान करने की प्रेरणा की । फल स्वरूप में वि.सं. २०५४ में श्री शंखेश्वर तीर्थ में श्रीयुत् श्रेणिकभाई कस्तुरभाई आदि अनेक महानुभावों की उपस्थिति में जाहिर सन्मान और प्रभावना-बहुमान का भव्य कार्यक्रम आयोजित हुआ था ।
. 'गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंगं न च वयः' के नीति वाक्य को खयाल में लेकर इस प्रस्तावना द्वारा उन सभी गुणीजनों के प्रति भावना अभिव्यक्त करता हूँ कि "उदयो भवतु सर्वेषाम्" .
गुणसम्पन्नों की अनुमोदना समकिताचार है, अनुपबृंहणा अतिचार
HENCE LET ALL BE HAPPY BY COMING ACROSS THE IDEAL ACHIEVEMENTS OF IDEAL PEOPLE, WHICH IS THE UT MOST PURPOSE AND EXPECTATION OF THIS HINDI PUBLICATION BY GANIVARYASREE.
आत्म प्रशंसा और परनिंदा के अप्रशस्त अध्यवसायों से बचकर तथा अनुमोदना द्वारा करण-करावण से भी तुल्य लाभार्जन हेतु प्रस्तुत पुस्तक का अध्ययन और आशातना वर्जन आवश्यक जरूर लगता है ।