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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ था। इसलिए उनके घरके सामने से गुजरते हुए जैन साध्वी समुदाय को देखकर उपर्युक्त सभी आत्माओंके हृदयमें शुभ भाव जाग्रत होने लगे कि, हम भी कब ऐसे श्वेत वस्त्रधारी साध्वीजी बनेंगे ? 'यादशी भावना, तादशी सिद्धि' और 'साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः' इस सूक्तिके अनुसार सत्संग के प्रभावसे एक दिन उनकी भावना साकार हुई। ..
धन्य है उनके माता-पिताको, जिन्होंने जीवदया रूप धर्मका पालन किया और उसके पुण्य प्रभावसे उनकी संतानें भी संयमी बनीं ।
पशुसेवा, मानवसेवा, संतसेवा, हररोज प्रभुदर्शन एवं निरंतर नवकार महामंत्रका स्मरण इत्यादि कारणों से 'भगत' के नामसे सुप्रसिद्ध मंगाभाई आज उस पार्थिव शरीर के रूप में विद्यमान नहीं हैं । २० साल पूर्वमें उनका देह विलीन हुआ। लेकिन उनके सुपुत्र रणछोड़भाई आज भी अपने पिताजी के पदचिह्नों पर चलते हुए, कुत्तोंकी रोटीके लिए गाँवमें आटेकी झोली घर घरमें फैलाकर पशुओंकी अनुमोदनीय सेवा कर रहे हैं । प्रतिवर्ष गाँवमें जब भी रथयात्रा निकलती है तब रथ को वहन करने के लिए अपने बैल नि:स्वार्थ भावसे देनेका लाभ रणछोडभाई ही लेते हैं।
६० सालकी उम्रमें मंगाभाई ने फाल्गुन शुक्ल १३ के दिन महातीर्थ शत्रुजय की ६ कोस की प्रदक्षिणा दी थी । मंगाभाई की अंतिम समाधिके स्थान पर गाँवके लोगोंने देवकुलिका (देहरी) बनाकर उसमें उनकी पादुकाएँ स्थापित की हैं। जीवमात्र की नि:स्वार्थ सेवा द्वारा मंगाभाई ने कैसी अदभुत लोकप्रियता हासिल की थी, इसकी परिचायिका के रूपमें वे पादुकाएँ आज भी विद्यमान हैं। ...
सचमुच, मनुष्य जन्मसे नहीं किन्तु सत्कार्यों से ही महान बन सकता है । मंगाभाई के जीवन से प्रेरणा लेकर सभी मनुष्य निःस्वार्थ सेवाको ही अपना जीवनमंत्र बनायें - यही शुभ भावना ।
पता : रणछोडभाई मंगाभाई भगत मु.पो. पाटडी, जि. सुरेन्द्रनगर (गुजरात), पिन : ३८२७६५.