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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ करके भी अन्य जीवों को सुख चैन से जीने दो' ऐसे लोकोत्तर जीवदया के उपदेश को संप्राप्त श्रावकों को बाबुभाई के दृष्टांत में से प्रेरणा लेकर ऐसे प्रसंगों में अपने तन-मन-धन और संबंधों का सदुपयोग करके अबोल जीवोंको बचाने के लिए प्रयत्न करने चाहिए ।
___आजकल पालीताना जैसे महातीर्थधाम में भी कई बार कसाइयों की जाल में फंसे हुए सूअरों की दर्दनाक चीखें सुनाई देती हैं तब शक्तिसंपन्न सुश्रावकों को उनको बचाने के लिए बाबुभाई की तरह सतप्रयत्न करने चाहिए। ____ जीवदया के परिणामों में अभिवृद्धि होने पर बाबुभाईने अपनी ओर से सभी जीवों को अभयदान देने के लिए वि.सं. २०३८ में मृगशीर्ष शुक्ल पंचमी के दिन भोयणी तीर्थ में संयम का स्वीकार किया और आगमप्रज्ञ प. पू. मुनिराज श्री जंबूविजयजी म.सा. के शिष्यरत्न मुनिराज श्री बाहुविजयजी के रूपमें तपोमय मुनिजीवन जी रहे हैं ।
हाल में ७७ साल की उम्रवाले इन महात्माने ५८ साल की उम्र से हि आजीवन कम से कम एकाशन तप करने का अभिग्रह लिया है। इसके अलावा एकांतरित ५०० आयंबिल-एकाशन, नवपदजी की ७१
ओलियाँ, दीक्षा के बाद प्रथम चातुर्मास में ही मासक्षमण तप इत्यादि द्वारा वे अनुमोदनीय कर्म निर्जरा कर रहे हैं।
कुछ साल तक उन्होंने गुरु आज्ञापूर्वक साणंद में रहकर वर्धमान तप की १०८ ओली के आराधक महातपस्वी पू. मुनिराज श्री मनोगुप्तविजयजी म.सा. की अनुमोदनीय वैयावच्च की थी ।
दि. २८-१-९६ के दिन साणंद में और दूसरी बार भीलडीयाजी तीर्थमें इन महात्मा के दर्शन हुए थे । परार्थव्यसनी महात्मा को कोटिशः वंदन।