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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १
कम से कम बियासन का पच्चक्खाण हमेशा करनेवाले लक्ष्मणभाई ने वर्धमान आयंबिल तपकी ४५ ओलियाँ कर ली हैं । प्रतिवर्ष दो बार नवपदजी की ओली भी विधिपूर्वक अचूक करते हैं । उभय काल प्रतिक्रमण एवं अष्टप्रकारी जिनपूजा वे रोज करते हैं । कभी लम्बी यात्रा का प्रसंग होता है, तब वे बीच के स्टेशन पर उतरकर प्रतिक्रमण एवं जिनपूजा करने के बाद ही आगे बढ़ते हैं । टिकट का आयोजन भी उसी प्रकारसे करते हैं। कैसी अनुमोदनीय धर्मदृढता !
उन्होंने कई बार प.पू.आ.भ श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें पालितानामें रहकर चातुर्मासिक आराधनाएँ की हैं । २ बार ९९ यात्रा भी की हैं । कई बार छ:'री' पालक संघोंमें शामिल होकर अनेक तीर्थों की यात्राएँ की है । प्रतिवर्ष केशलुंचन करवाते हैं । हररोज १४ नियम की धारणा करते हैं । रात के समयमें चलने का प्रसंग आता है तब जीवरक्षा के लिए दंडासनका उपयोग खास करते हैं।
अपनी एक बेटी एवं दौहित्रों को भी उन्होंने जैन धर्म के संस्कार अच्छी तरह दिये हैं । अपने छोटे भाई को उन्होंने कहा कि 'अगर तू मेरा सार्मिक बने अर्थात् जैन धर्मका स्वीकार करे तो मेरा मकान एवं संपत्ति तुझे दे दूं, क्योंकि मेरी संपत्तिको पापानुबंधी बनाने की मेरी बिलकुल इच्छा नहीं है ।'
कितनी दीर्घदृष्टि एवं आत्म जागृति । सभी को तारनेकी कैसी उदात्त भावना ।
___ लक्ष्मणभाई के जीवनमें से साधर्मिक भक्ति, जीवदया, परार्थवृत्ति, धर्मदृढता आदि सद्गुणों को अपने जीवनमें लाने का सभी पुरुषार्थ करें यही मंगल भावना ।
सं. २०५४ में शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना बहुमान समारोहमें उपस्थित होनेका निमंत्रण स्वीकार करके लक्ष्मणभाई वहाँ पधारे थे । उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 16 के सामने ।